SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ जघड़िया में गुरु महाराज के दर्शन अहमदाबाद से विहार कर जैतपुर होकर खेड़ा में श्राये, वहां पं० वीरविजयजी लामविजयजी के दर्शन किए, यहाँ के मन्दिर में एक लकड़ी का फाड़ बना हुआ है, शाखों पर कई नृत्य करती हुई पुतलियें हैं, जिन्हों के हाथ में कई प्रकार के वाजिंत्र भी हैं, झाड़ के एक ऐसी चाबी है कि चाबी देने से वे सब पुतलियें नृत्य करने लग जाती हैं और वाजिंत्र भी बजाया करती हैं। इस प्रकार की शिल्पकला देख कर विचार किया कि बिना यंत्र ( बिजली ) भी हमारे भारतीय विद्वान् इस प्रकार के शिल्पज्ञ थे कि ऐसे २ आचर्यात्पादकप दार्थ बना सकते थे । ८ खेड़ा से मातर गये, वहां मोहनविजय साधु धर्मशाला के ऊपर ठहरा हुआ था और नीचे उनकी साध्वियें ठहरी हुई थीं, अर्थात् उनके परस्पर में परिचय ऐसा प्रतीत होता था, मानो साधु साध्वियें शामिल ही ठहरे हुए हों। जिस मोहन विजय के साध्वियों और गृहस्थनियों के साथ कई बार बाजा बाज चुके थे, तद्यपि गुर्जर लोग इतने अन्ध विश्वासी हैं कि ऐसे पतित को भी साधु मानते हैं। मातर से संजित गये, वहां मुनिश्री हंसविजयजी, पॅ० संपत - विजयनी आदि के दर्शन हुए; वहाँ दिन भर रहने से और हँस विजयजी महाराज की सेवा करने में बड़ा ही आनन्द आया, हँसविजयजी महाराज बड़े ही मिलनसार और अच्छे साधु थे, चारित्र की ओर आपका विशेष लक्ष था । पन्यास सम्पतविजय
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy