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________________ २५७ गुरु-शिष्य का अलग होना अनन्त संसारी बनाना चाहते हैं, इसका तो अब उपाय ही क्या है ? और इस प्रकार मिथ्यात्व-युक्त पदवी को तो मैं एक विषसंयुक्त सुन्दर पकवान ही समझता हूँ। गुरु-गयवरचन्दजी, मैं इस बात को मानता हूँ कि सूत्रों में मूर्ति का पाठ बहुत जगह पर आता है । पूज्यजी स्वयं इस बात को जानते हैं, उन्होंने कई बार मुझे कहा भी था, किन्तु तुम यह सब बातें आम जनता में कह देते हो, इस बात को ही पूज्यजी महाराज सहन नहीं कर सकते हैं। गयवर०-किन्तु जानने के बाद सत्य बात को छिपा कर रखना अथवा उस बात को बदल कर कहना भी तो कर्म-बन्ध का कारण है। इस संसार में थोड़ी-सी वाह-वाही के लिये असत्य बात को फैलाना कौन समझदार व्यक्ति स्वीकार करेगा ? ___ गुरु-खैर, जैसा भगवान् ने भाव देखा वैसा ही हुआ और होगा । बन सके तो अभी, या अन्यथा चतुर्मास के बाद पूज्यजी महाराज से मिल कर सफ़ाई कर लेना, हमारा तो यही कहना है, फिर तुम्हारी इच्छा । इतना कह कर गुरु महाराज ने फलौदी का रास्ता लिया और हमारे चरित्रनायकजी पुनः जोधपुर पधार गये। यह शुभ दिन था चैत्र शुक्ला १३ का, जिस दिन जनता में छाया हुआ अन्धकार को दूर करने के लिये एक क्रांतिकारी दिव्य महात्मा ने जन्म लिया और जिसका शुभ नाम था भगवान महावीर ! ___ आज भी ऐसा ही निमित्त कारण मिला है कि जो मारवाड़ की भूमि पर फैला हुआ मिथ्यान्धकार को निर्मूल करने को तथा हमारे चरित्रनामकजी ने अपने स्वतन्त्र विचारों का प्रचार करने के लिये कमर कसी है । अहाह ! कैसा सुअवसर है ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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