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________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३५४ है हो सके तो यहाँ से रेल किराया दिला दें घेवरमुनिजी ने कहा है कि मुनीमजी से मिलो। ___मुनीमजी-अभी आप कहते थे कि दोड सौ रुपये मेरे पास हैं फिर आप किराया की याचना क्यों करते हो और जब आप पुनः संवेगीदीक्षा लेना चाहते हो फिर उन रुपयों को क्या करोगे ? ___मांगी० रुपयों का तो मेरे पास बहुत सा काम है मैं यहाँ आ गया हूँ और घेवरमुनिजी का यहाँ विराजना है अतः बम्बई तक का किराया तो मिलना ही चाहिये ? ___ मुनीमजी-मैं तो यहाँ नौकर हूँ इस प्रकार साधुओं को रुपये देने का मुझे अधिकार नहीं है यदि आप ठहरें तो मैं फलोदी से समाचार मंगवा कर आपको जवाब दे सकता हूँ। मांगी०-यदि फलौदी से मनाई श्रा जावे तो ? मुनीम-मैं एक पाई भी दे नहीं सकता हूँ। मांगीलाल-कपड़ा लेकर रवाने हो गया। मांगीलालजी के जाने के बाद मुनिश्री ने सोचा कि शास्त्रकारों ने दीक्षा के लिये जाति कुल की उत्तमता का उल्लेख किया है वह सोलह आना सत्य है । बिचारा जाति का मैणा और मूल्य खरीद किया हुआ, फिर भी माता पिता का पोषण करने वाला जैनदीक्षा का कैले पालन कर सकता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु इसके विपरीत जैनधर्म को कलंकित कर रहा है, यद्यपि 'कर्मणा गहन गति' कह कर संतोष करना पड़ता है। मुनिश्री ने सब से पहिले प्रतिमा छत्तीसी नामक एक छोटी सी पुस्तक बनाई थी, जिसकी २००० प्रतिएं सादड़ी वालों की ओर से छपी थी । वह इतनी लोक प्रिय बन गई कि थोड़े ही
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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