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आदर्श-ज्ञान
२० कभी कभी तो आप स्वयं पाट पर बैठ के अपने कुटम्बियों को व्याख्यान की नकल करते हुए कुछ न कुछ सुनाया करते थे। कभी कभी तो अपनी उम्र के बालकों में आप साधु बन उन्हों को उपदेश भी दिया करते थे इत्यादि अनेक चेष्टाएँ तो आप बाल्यावस्था में ही किया करते थे । जैसे श्राप धर्म सम्बन्धी कार्यों में बालभाव व्यतीत करते थे वैसे ही सांसारिक कार्य में भी अनेक प्रकार की घटनाएँ किया करते थे।
जब आप शिश्ववस्था से कुछ आगे बढ़े तो शिक्षा के हित विद्यालय में प्रविष्ट हुए, वहां पर भी आप सहपाठियों से सदैव आगे ही रहते थे । आपने अल्प समय में आवश्यक एवं आशातीत शिक्षा ग्रहण कर लो । जब आपने आवश्यक विद्या प्राप्त कर ली तब पढ़ाई छोड़ कर व्यापार क्षेत्र में पदार्पण किया, यहां भी
आप बड़े ही कुशल निकले । व्यापार के व्यवहार में आपकी हिम्मत और ठौती बड़ी अनुकरणीय थी, जिस कार्य को श्राप प्रारंभ करते उसको बड़े ही उत्साह से अन्त में सफलता प्राप्त कर के ही छोड़ते थे, अतः यह एक आपकी स्वाभाविक आदत सी हो गई।
केवल विद्या और व्यापार ही नहीं पर बाल्यावस्था से सत्संग करने का भी आपको बड़ा भारी शौक था । कोई भी साधु संत एवं उपदेशक-सुधारक ग्राम में आते तो आप उनसे अवश्य मिलते एवं योग्य सत्कार किया करते थे । पूर्वजन्म के संस्कारों की प्रेरणा से बचपन से ही धर्म की ओर आपकी अभिरुचि थी, आपके निवासस्थान-बीसलपुर में प्रायः स्थानकवासी साधुओं का ही विशेष सागमन था, आप उनके परमोपासक थे, यही कारण था कि