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________________ भादर्श-ज्ञान २०८ पूज्यजी-समझ गए कि इनके दिल में किस्तूरचंदजी की बात है; उनका निपटारा हुए बिना यह यहाँ नहीं आवेगा, अतएव आपने आज्ञा दे दी कि अच्छा किस्तूरचंदजी महाराज भी श्रा जावें। ___इस पर गयवरचंदजी वापिस जाकर सब साधुओं को ले आये । प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में वन्दन करने में गड़बड़ रहा, किसी ने किसी को वन्दना की और किसी ने नहीं भी की। जब प्रतिक्रमण हो चुका और सब साधु एकत्र हुए, तब पूज्यजी महाराज ने गयवरचंदजी से कहा। गयवरचंदजी, तुम्हारे व्याख्यान और ज्ञान ध्यान के लिए तो हमें बड़ा भारी गौरव है और यत्र-तत्र तुम्हारी तारीफ ही सुनी जाती है; किन्तु उदयपुर और रतलाम में तुम्हारी जो चर्चा सुनी है, उससेतो बड़ा ही दुःख होता है; जब तुम्हारे जैसे विद्वान् ही इस प्रकार कर रहे हैं, तो फिर साधारण साधुओं के लिए तो कहना हो क्या है ? गयवर-पज्यजी महाराज, उदयपुर में मैंने अग्रसर श्रावकों के आग्रह से व्याख्यान में श्री जीवाभिगम सूत्र बांचना शुरू किया; और उसमें विजय देवता के अधिकार में जो कुछ सूत्र में आया; वह मैने सुना दिया; इसमें मेरा क्या अपराध हुआ ? पूज्यजी-भाई अपराध तो कुछ नहीं, पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव को देखना चाहिए; क्योंकि व्याख्यानदाता में यह गुण सर्व प्रथम होवा आवश्यक है। हमने भी कई बार जीवाभिगम सूत्र बाँचा था, किन्तु तुम्हारी भाँति श्रावकों में हा-हु नहीं मचवाई थी। गयवर-आपने उस पाठ का क्या अर्थ किया ?
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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