________________
भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड
३०२ है। केवल उनकी श्रद्धा मूर्ति की हो जाने से एवं वे आम तौर पर व्याख्यान में प्ररूपना कर देने से उन्हें अलग कर दिया है । अचलदासजी ! श्राप जानते हैं, किसी साधु पर अनहोता झूठा कलंक लगा देना कैसे कर्म बन्ध का कारण है ? __ अचल-हाँ, पूज्य महाराज ! आत्मार्थी का यह काम नहीं है कि किसी की झूठी निन्दा करे । मुझे तो गयवरचन्दजी का आचार-विचार में कोई दोष मालुम नहीं होता है।
अचलदासजी वगैरह जान गये कि मूर्ति का मानना शास्त्र सम्मत है, और मुँहपर मुंहपत्ती बांधने की प्रवृति पिछले लोगों ने अपनी मनकल्पना से चलाई है । गयावरचन्दजी की सत्य कहने की आदत पड़ गई है, और "साँच कहने से माँ भी मारती है", यही कारण आपके अलग होने का है। ४४ चन्दनमलजीनागौरी का तीवरी में मिलाप
तीवरी में उस समय खरतरगच्छ की साध्वी रत्नश्रीजी का भी चातुर्मास था । पहिले तो साध्वीजी लोढ़ाजी के बहुत कहने सुनने पर भी मुनिश्री के पास नहीं आया करती थीं, कारण मुनिश्री के मुँह पर मुँहपत्ती बंधी हुई थी,तथाओषा भी लंबा था, शायाद इससे डर गई हों किंतु जब छापों में चर्चा चली सब जयपुर में सोनश्रीजो को मालूम हुआ। उन्होंने एक पत्र साध्वीजी को लिखा कि तुम गयवरचन्दजी के पास जाना, अपने गच्छ का प्रतिक्रमण सिखाने की कोशिश करना तथा अपने गच्छ का स्थापना भी उन्हें देदेना। दूसरा पत्र लोढ़ा जी को लिखा था क्योंकि वे खरतरगच्छ की क्रिया करते थे। सोनश्री