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सागरजी के साथ वार्तालाप ___मुनि-सागरजी कितने ही विद्वान क्यों न हों, पर सत्य का गला घोंट कर सत्य को असत्य बतावें, यह कैसे सहन हो सकता है। सागरजी विद्वान हैं तो उनका कर्तव्य था कि मेरे प्र. श्नों का उत्तर देकर मुझे समझाते, पर मुझे तो यही ज्ञात हुआ कि सागरजी अपनी पंडिताई केवल अज्ञ पुरुषों के सम्मुख ही जाहिर करते हैं, मैंने सागरजी की विद्वत्ता की परीक्षा करली है, आपका छपाया हुआ श्री पन्नवण सूत्र मैंने देखा है जिसमें इतनी अशुद्धियां हैं कि भविष्य में मालूम होगा कि इसका छपाने वाला एवं संशोधन करने वाला कोई अज्ञ ही था।
सागरजी-इन बातों को सुन कर आप मारे क्रोध के भूत बन कर योगीराज के पास आये और मुनिश्री की ओर लक्ष करके बोले, अरे मूर्ख ! तुमने पन्नवण सूत्र में कहाँ अशुद्धियों देखी, ला अभी बतला। . मुनि०-सागरजी महाराज ! यहाँ आप मग्नसागर न समझ लेना कि आपने उनको पराजित कर उन पर विजय प्राप्त करली है, पर मैंने आपकी विद्वता को अच्छी तरह से समझ लिया है, ज्यादा करोगे तो आप अपनी प्रतिष्ठा को खो बैठोगे। यदि आप विद्वत्ता का कुछ घमण्ड रखते हो तो पहिले मेरे प्रश्नों का उत्तर देदो, वरना मैं एक सभा कर आपसे प्रश्नों के उत्तर लेने का प्रयत्न करुंगा। ____सागरजी--प्रश्नों का उत्तर देना, या न देना तो मेरे आधीन है, किन्तु तुम जो कहते हो कि पन्नवणासूत्र में अशुद्धियाँ हैं, जिसका संशोधन मैंने सात २ प्रतिएं पास में रखकर किया है। फिर भी, लं! यह पन्नवणासूत्र मेरे पास में है, इसमें कोई भी अशुद्धि हो तो निकाल कर बतलाओ । यदि तुम एक भी अशुद्धि