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भादर्श-ज्ञान
१३८ एवं विद्वान कहलाते थे. तथा इन चारों की श्रद्धा मूर्तिपूजा को आर झुकी हुई थी, किन्तु थी गुप्त में । चन्द मनुष्य इस बात का पूर' तरह से जानते थे।
पूज्यजी के पधारने के पूर्व एक समय शोभालालजी तीवर गये थे। वहां तींवर के किसी श्रावक ने शोभाल लजी से प्रश्न किया कि____यदि कोई श्रावक जिनप्रतिमा को नमस्कार करे, तो उसका क्या फल होता है ? ___ शोभालालजी-यह प्रश्न किसी विद्वान् से पूछना ।
श्रावक -आपके अतिरिक्त और कौन विद्वान् है ? हम तो आपको ही विद्वान् समझते हैं।
शोभा०-मैं तो ऐसा विद्वान नहीं हूँ। श्रावक-आपको इस प्रश्न का उत्तर तोदेना ही पड़ेगा ?
शोभा०-खैर, श्रावक जिनप्रतिमा को क्या समझ कर नमस्कार करता है ?
श्रावक-जिनप्रतिमा समझ कर ।
शोभा-यदि जिन-प्रतिमा में जिनवर की भावना लाकर नमस्कार करता है, तो उसका समकित निर्मल होता है, और यदि पत्थर समझ कर नमस्कार करता है, तो मिथ्यात्व लगता है। .. श्रावक-प्रतिमा पत्थर की है, उसको पत्थर समझने से क्या मिथ्यात्व लगता है ?
शोभा०-पत्थर को पत्थर सममने से मिथ्यात्व नहीं लगता है, किन्तु प्रतिमा को पत्थर समझ, उस प्रतिमा के पत्थर को नमस्कार करने में मिथ्यात्व लगता है।