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जैन मुनिवरों के व्याख्यान सभा में जाने का निश्चय कर ही लिया, और दयालजीभाई को कह दिया कि सरघस में तो हम नहीं आवेंगे किन्तु सभा में श्रा कर भाषण अवश्य देवेंगे। मुनियों ने विदेशी वस्त्रों को त्यागन पहले से ही कर रखे थे अतःवे सब खादी के कपड़े पहिन कर, दयालजीभाई आदि नेताओं के साथ सभा में पहुँचे । वहाँ जाकर देखा तो, ४-५ जगह तो, प्लेट-फार्म थे और कई जगह लाउडस्पीकर (Loud Speaker) लगे हुए थे ५०००० आदमियों के होने पर भी वातावरण अत्यन्त ही. शान्त था; वक्ताओं के बड़े ही जोशीले व्याख्यान हो रहे थे; पुलीस का चारों ओर दौर-दौरा था, व्याख्यान के नोट लेने वाले भी उपस्थित थे । साधु भी वहाँ अनेकों थे, किन्तु जैनों के केवल तीन ही साधु थे; जब व्याख्यान के लिए कहा गया तो सर्वप्रथम योगीराज का भाषण हुआ, १५ मिनट का समय मिला और आपका स्वदेशी वस्त्र के विषय में सारगर्भित भाषण हुआ। दूसरे पंजाबी तिलकविजयजी का भाषण हुआ, आपको २० मिनिट का समय दिया गया था; आपने स्वधर्म रक्षा के बारे में व्याख्यान दिया । तीसरा नम्बर हमारे चरित्र नायकजी का था, आपको २५ मिनिट का समय मिला; आपने स्वराज्य के विषय में कहा कि जब तक आत्मा स्वतंत्र नहीं होगी तब तक स्वराज्य नहीं मिल सकता है; अतः श्रात्मा को भय तथा पराधीनता से मुक्त कर स्वतंत्र बनावें इत्यादि । जैन मुनियों के भाषणों ने सबको मंत्र मुग्ध बना दिये ।
सुरत के चतुर्मास से योगीराज एवं मुनिराज का जनता पर खूब अच्छा प्रभाव पड़ा, इसका कारण आपकी विद्वत्ता ओर निस्पृहिता ही था । चातुर्मास की समाप्ति के दिन निकट आये तो