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आदर्श-ज्ञान-द्वितीय खण्ड
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एक दिन सीतोर के श्रावक जघड़िये यात्रा करने के लिए आये थे, वहाँ योगीराज को देख उन्होंने चतुर्मास की विनतो की, पहिले तो श्रापश्री का विचार नहीं हुआ था, पर बाद में मुनिश्री ने कहा गुरु महाराज यहां श्रावकों के घर केवल तीन ही हैं, इसलिये यहां चार साधुओं का निर्वाह नहीं होगा । सुरत में मैंने संस्कृत का अभ्यास शुरू किया था, पर व्याख्यानादि कार्यों से मेरे कुछ भी अभ्यास नहीं हुआ, अतः मैं आपको सेवा में जघड़िया चतुर्मास कर दूँ और आये हुए दोनों साधु सीनोर चतुर्मास कर देंगे ।
गुरु महाराज ने फरमाया कि ये दोनों साधु ज्ञानाभ्यास - रने के लिये आये हैं इनको निराश करना अपना कर्तव्य नहीं है अतः मैं इन दोनों साधुओं के साथ सीनोर चतुर्मास कर दूँगा तुम जघड़िया में रह कर व्याकरण का अभ्यास कर लो । मुनिश्री ० - मैं आपसे अलग रहना नहीं चाहता हूँ अतः चला सब साधु सीनोर ही चतुर्मास कर लेंगे ।
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गुरु महाराजः - तुम्हारा कहना तो ठीक है पर यह देख लेना सीनो में भी तुम्हारे इतना ज्ञान प्राप्त न होगा अतः मेरा खयाल है कि तुम जघड़िये चौमासा कर लो तुम्हारे लिये अच्छा रहेगा ।
गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर मुनिश्री ने जब ड़िये चौमासा करना मंजूर कर लिया और योगोराज तथा दो मुनिराजों का चतुर्मास सीनोर होना मुकर्रर हो गया ।
सुरत में खबर हुई कि योगिराज जघड़िये पधार गये हैं, तो वे लोग दर्शनार्थ घडिये श्राये, योगीराज ने उपदेश दिया कि हम तीन साधु तो सीनोर चतुर्मास करेंगे और मुनिजी ज्ञानाभ्यास के लिये जघड़िये रहेंगे, इसलिये श्राप लोग इनके लिये