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आदर्श-ज्ञान- द्वितीय खण्ड
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और भी कई स्थानोंपर कई साधु थे, आप उन सब से मिले और कई प्रकार के प्रश्नोत्तर भी किए, अहमदाबाद की जैन समाज में यह बात सर्वत्र फैल गई कि एक मारवाड़ी साधु आया है, जो ढूँढ़ियों से निकल कर संवेगी हुआ वह जैन-शास्त्रों का बड़ा ही जानकार है । मुनिश्री जिन २ साधुत्रों से मिले वे सब उपाश्रय पुस्तक भंडार और पदवियों का लालच बतला कर अपनी २ ओर खेंचने का प्रयत्न करते थे, किन्तु आपने किसी को भी इन्कार नहीं किया तथा यही कहते रहे कि मैंने दीक्षा तो परम योगीराज मुनिश्री रत्नविजयजी महाराज के पास ली है, अब रहना किस के पास, इसलिये सब साधुओं से भेंट कर रहा हूँ, जहां मेरा दिल स्थिर हो जावेगा वहां ही मैं ठहर जाऊंगा। इस प्रकार कहने से कोई निराश नहीं हुआ किन्तु सब आशा रखते थे ।
आप जितने साधुओं से मिले उनमें बहुत कम सधुत्रों को जैनशास्त्रों के अभ्यासी पाये और आचार विचार में भी जहां देखा वहां शिथिलता ही पाई गई, पूछने पर अपवाद का कारण बतलाते थे ।
एक दिन आप भटी की पोल के उपाश्रय में गये जहां गुलाबविजयजी पन्यास ठहरे हुए थे, श्राप आचार विचार में शिथिल थे परन्तु आपको शास्त्रों का अभ्यास अच्छा था, आप दोपहर में कई साधुओं को श्री भगवतीजी सूत्र की वाचना दिया करते थे, तथा कई श्रावक गण जो सूत्रों के प्रेमी और रुचि रखनेवाले थे वे भी वहां आया करते थे । श्राप जिस समय वहां पधारे तब १५ साधु और ५० श्रावक श्राविकाएं सूत्र सुन रहे थे, आप भी फेटा वन्दन करके बैठ गये । भगवती सूत्र का ३४वां शतक महाजुम्मों का अधिकार बंच रहा था ।