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________________ ५९९ ओसिगाँ का पत्र और गुरु आज्ञा कोई दूर नहीं है । यदि इस वर्ष में तुम नहीं आ सकोगे तो मैं यहीं कहीं चतुर्मासा कर दुगा, मेरे साथ दो साधु हैं ही, चतुः र्मास के पश्चात् तुम आजावोगे तब बंबई चल कर बोडिङ्ग की नीव सुदृढ़ कर देवेंगे। मुनि०-गुरुमहारज ! आपकी सेवा छोड़ना मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती है। योगी०-ऐसा होना तो मुमुक्षुओं का कर्तव्य ही है, पर जब मैं कहता हूँ और तुम्हारे गये बिना एक स्थापित संस्था उठ जावे इस हालत में तुम विचार कर सकते हो कि मेरे पास में रहना अच्छा है या मैं कहूँ जैसे करना अच्छा है। ___ मुनिः-गुरुमहाराज ! मैं इस बात को जानता हूँ, तथापि आप की सेवा छोड़ने में मैं राजी नहीं हूँ। . योगी०-लो अब तुम मारवाड़ जाने की तैयारी करो, हमको भी विहार करना है। मुनि०-क्या आपश्री ने निश्चय कर लिया है कि बिचारे एक साधु को बिना इच्छा अकेले मारवाड़ को भेज देना। योगी-अरे तुम शेर होकर इस प्रकार कायरता क्यों बतलाते हो, मैं कहता हूँ कि तुम जाकर इस बोर्डिंग की व्यवस्था सुधारोगे तो तुम को बहुत लाभ होगा, और भविष्य में समाज को इसके सुन्दर फल मिलेंगे। यदि यह सर्वप्रथम स्थापित संस्था जीवित रही तो इसकी शाखा प्रतिशाखा रूप में अनेक संस्थाएं जन्म लेकर तुम्हारे मारवाड़ का उद्धार कर देवेंगी। मुनि-मेरे अकेले के जाने से कई लोग प्रश्न करेंगे कि आप गुरू को छोड़ अकेले क्यों आये? मैं इसका क्या उत्तर दूगा
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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