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________________ भादर्श-ज्ञान द्वितीय खण्ड ३६८ देते समय कहा कि गच्छ उपकेशगच्छ, आचार्य श्रीरत्नप्रभसरि, गुरु मुनि ज्ञानसुंदर कह कर आप का नाम रूपसुंदर रख दिया । ... रूपसुंदरजी के न जाने ज्ञानावणिय कर्म का कैसा उदय था कि आप को न तो ज्ञान पढ़ने की रुची थी और न इसके लिए उद्योग हो करते थे फिर भी साधुओं के अवश्य करने योग्य प्रतिक्रमण देववन्दनादि क्रियाएं कंठस्थ करने की परमावश्यकता भी थी दूसरे आप को प्रकृति भी कुछ जल्द थी। तीसरे आप को इधर उधर की बातें और पंचायत करने का भी अधिक शोक था गुरु महाराज ने एक दो बार ठीक समझा दिया तब भी आप के दिल में ज्ञान पढ़ने का कुछ भी असर नहीं हुआ खैर जैसा क्षयोपशम । ___ रूपसुंदरजी का जैसे ढूंढियों के प्रतिभाव था वैसे खरतरों के प्रति भो कम नहीं था । व्याख्यान और दो पहर को शास्त्र बँचना होती थी उस में खरतरागच्छ के श्रावक और साध्वियां आती थी तो रूपसुंदरजी उनसे भी नाराज रहते थे गुरु महाराज ने समझाया कि देखिये आप के पूर्व जन्म के उदय होने से इस भव में आपको ज्ञान पढ़ ने की रुची कम है पर दूसरे ज्ञान पढ़ते हैं उसके लिए अनुमोदन न कर इस प्रकार द्वेष कर अंतराय कर्म क्यों बाँधते हो ? यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है । अपने लिये तो क्या खरतर और क्या ढूंढियां कोई भी क्यों न हो पर ज्ञान देना तो लाभ का ही कारण है इतने लोगों से कोई भी पढ़ लिख कर अपनी आत्मा का कल्याण करेगा इसमें अपने को तो फायदा ही है। ढूंढियों के साथ अपना कोई द्वेष नहीं है वे लोग गलत रास्ते पर जा रहे हैं उनको सद्बोध देना अपना कर्तव्य है फिर माने . या न माने यह उनको मरजी पर है यदि अपने कारण से वे लेख
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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