SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आदर्श - ज्ञान २५४ नगरी में दिये हुए वचन का पालन करने के लिए ही यहां पधारे हैं ? शोभालालजी ! कम से कम ऐसा लिखत लेकर आपको तो नहीं पधारना चाहिए था । क्या आपको यह विश्वास था कि गयवरचन्द जैसा एक स्वतन्त्र विचार वाला साधु जान-बूझ कर इस मिथ्या लिखित पर चोरों की भांति हस्ताक्षर कर देगा ? खैर, मैं आपसे ही पूछता हूँ कि इस लिखित में लिखी हुई १२ बातों को आपने तो सच्चे दिल से स्वीकार कर ली है ना ? शोभा- नहीं, मैं इन बातों को कब मानता हूँ ? गयवर०—- तब तो हस्ताक्षर करना माया एवं कपट ही हुआ ! शोभा० - किन्तु जब मालिक ही माया करवाना चाहे, तब दूसरा क्या कर सकता है । गयवर० – क्या आपसे उस समय इन्कार नहीं किया जाता था ? क्या आपने वीतराग की आज्ञा को भी ठुकरा कर पूज्यजी के वचनों को ही सर्वोत्कृष्ट समझा है ? आपको तो यह भी मालूम है कि पूज्यजी स्वयम् मूर्तिपूजा को मानते हुए भी अपने लोगों को धमकाते हैं; तिस पर भी आप जैसे डरपोक साधु ने लिखित पर हस्ताक्षर कर दिए । भला, इतने ढूंढियों में से साधु निकल कर संवेगी हुए और कई ढूढियों में रहते हुए भी मूर्ति की श्रद्धा रखते हैं; किन्तु लिखित पर हस्ताक्षर करने की नजर आपने आज पर्यन्त कहाँ पर भी सुनी है ? शोभा०- नहीं । गयवर ० तो आपने हस्ताक्षर कैसे कर दिए, तथा मेरे से भी हस्ताक्षर करवाने के लिये कैसे आ गये ? इस बात पर मुझे बड़ा अफसोस होता है ।
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy