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________________ ६०७ विहार और सम्पताल दशा कर रखी है ? इनसे तो गृहस्थ भी अच्छे हैं कि वे अपने लिए हुए व्रत को निर्मलता से पालते हैं, और मर्यादा में चलते हैं, तथा पाप से डरते हैं, पर ये साधु तो इतने निध्नेंस परिणामी हो गये हैं, इतने शिथिलाचारी और परिप्रहधारी बन गये हैं कि थोड़े दिनों में यति होने की तैयारियाँ कर रहे हैं। क्या इस हालत में भी gकार न कर चुपचाप बैठ जाना अच्छा है ? शक्ति होते हुए भी चुप साध कर बैठ जाना, मैं तो शासन का खून काना ही समझता हूँ । क्या तुमने कभी विजय नेमीसूरि का उपाश्रय जाकर देखा है ? जिसमें पुस्तकों के अतिरिक्त कपड़ े, कांब लिये, पात्रा इत्यादि का इतना संग्रह है कि शायद ही साधारण गृहस्थों के वहाँ मिलता हो; जब कि एक ओर तो बिचारे गृहस्थों कों दोनों समय पेट भरने को अन्य एवं तन ढ़ाकने को वस्त्र भी नहीं मिलता है, तब दूसरी ओर संढ-मुढ जैन साधुओं को तीन २ दफे गौचरी, चाय, दूध, फल, मिष्टान्न, सरबती, मलमल और भी बहुमूल्य अनेक पदार्थों का उपयोग। क्या ऐसे पासत्थों को छिपा कर रखना अग्नि को रुई में रखने के समान नहीं है ? इत्यादि बातें होने पर संपतलाल को मालूम हो गया कि महाराज का कथन तो सत्य है, पर ऐसा मेफरनामा सुनेगा कौन ? दूसरे महाराज अकेले हैं; गुजरात में साधुओं का जोर है; इसलिए मुनिश्री को अर्ज की कि साहिब ! इस समय तो आपका मेझरनामा बंद रखना ही अच्छा है, कारण गुजरात में साधुओं का बहुत जोर है, श्रतः आपका मेरनामा कौन सुनेगा ? मुनि० : - सम्पतलाल ! मेरा मेझरनामा जमाना सुनेगा और
SR No.002447
Book TitleAadarsh Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpmala
Publication Year1940
Total Pages734
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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