Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥१०॥
पद्म | में राक्षसों का संचार न देखा सबही घुसरहे हैं सो सिर्घल निर्भय लंकामें रहे एकसमय सजा किहकन्ध
राणी श्रीमाला सहित सुमेरुपर्वतसं दर्शन कर अाबेथा माममें दक्षिमा समुद्र के लटपर देवकुरु भोग भूमि समान पृथ्वीमें करनतटनामा बन देखा, देखकर प्रसन्न भए और श्रीमाला गणसे कहते भए राणीके सुंदर बचन वीणले स्वर समानहैं देवी तुप्न मह रमणीक बन देखो जहां वृक्ष फूलों से संयुक्त हैं निर्मल नदी बहेहैं और मेघके आकार समान धरणीमालि नामा पर्वत शोभे है पर्वत के शिावर ऊंचे हैं और कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल जल के नीझरने झरें हैं सो मानो यह पर्वत हंसे ही है और वृक्षोंकी शाखासे पुष्प पड़े हैं सो मानो हमको पुष्पांजली ही देवे हैं और पुष्पोंकी सुगंध से पूर्ण पक्नसे हालते जो वृत्त उनसे मानों यह बन हमको उठकर ताजीम ही करें है और वृक्ष बेलॉस वमीभूत होय रहे हैं सो मानो हमको नमस्कार ही करे हैं जैसे गमन करते पुरुषों को स्त्री अपने गुणोंसे मोहितकर आगे जाने न दे है खड़ा करे है तैसे यह बन और पर्वतकी शोभा हमको मोहितकर सखे है आगे जाने न देह में भी इस पर्वतको उलंघ अागे नहीं जाय सकू इस लिये यहां ही नगर बसाऊंगा जहां भूमिगोचरियोंका गमन नहीं पाताल लंकाकी जगह ऊंटी है वहां मेस मन खेद खिन्न भया है सो अब यहां रहिनेसे मन प्रसन्न होयमा इस भांति राणी श्रीमाला सो कहकर भाप पहाइसे उतरे वहां पहाड़ ऊपर स्वर्ग समान नगर बसाया नगरका किहधपुर नाम धरा वहां आप सर्व कुटख सहित निवास किया सजा किवलंघ सस्यक दर्शन संयुक्त है और भगवान जा में सावधानहै सो राजा किहकंधके राणी श्रीमाला के योगसे सर्वरज और रत्ताज दो पुत्र भए और | मूर्यकमला पुची भई जिसकी शोभासे सर्व विद्याधर मोहित हुए।
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