Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
१२
भए पहले अपना दाहना पांव आगे धरचले फरके है दाहिनी भजा जिनकी और पूर्ण कलश जिनके । मुखपर लाल पल्लव तिनपर प्रथमही दृष्टिपड़ी और थम्भसे लगीहुई दारेखड़ी जो अञ्जनी सुन्दरी प्रांसुवों से भीज रहे हैं नेत्र जिसके तांबूलादिरहित धूसरे होय रहे हैं अधर जिसके मानो थंभमें उकरी पूतलीही है कुमारकी दृष्टि सुन्दरीपर पड़ी सो क्षणमात्र में दृष्टि संकोच कोपकर बोले हे दुरीक्षणे कहिये दुःखकारी है दर्शन जिसका इस स्थानक से जावो तेरी दृष्टि उलकापात समान है सो में सहारन सकूँ अहो बड़े कुल | की पुत्री कुलवन्ती तिनमें यह ढीटपणा कि मने किए भी निर्लज्ज उभी रहैं ये पतिके अतिक्रूर वचन सुनें तौभी इसे अति प्रिय लगें जैसे घने दिनके तिसाए पपैये को मेंघकी बूंद प्यारी लगे सो पतिके वचन मनकर अमृत समान पीवती भई हाथ जोड़ चरणारविन्द की ओर दृष्टि धर गदगद वाणी कर डिगते डिगते वचन नीठि नीठि कहती भई हे नाथ जब तुम यहां विराजते थे तबभी में वियोगिनीही थी परन्तु श्राप निकट हैं सो इस अाशाकर प्राण कष्टसे ठिक रहे ह अब आप दूर पधारे हैं मैं कैसे जीवंगी मैं तुम्हारे वचनरूप अमृत के प्रास्वादने की अति आतुर तुम परदेशको गमन करते स्नेहसे दयालुचित्त होयकर वस्ती के पशु पक्षियों कोभी दिलासा करी मनुष्यों की तो क्या बात सबसे अमृत समान वचन कहे मेरा चित्त तुमरे चरणारविन्द में है मैं तुम्हारी अप्राप्तिकर अति दुखी औरोंकी श्रीमुखसे एती दिलासा करी मेरी औरोंके मुखसेष्टी दिलासा कराई होती जब मुझे आपने तजी तब जगत्में शरणनहीं मरणही | है तब कुमारने मुख संकोचकर कोपसे कहीमर। तब यह सती खेद खिन्न होय घरतीपर गिरपड़ी पवन | कुमार इससे कुमायाही में चले बड़ी ऋद्धि सहित हाथीपर असवार होय सामन्तो सहित पयान किया।
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