Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पभ
सण अनेक दुष्ट जीवों कर भरा जहां जे महाधीर शूरवीर होंय तिनके भी जीवने की आशा नहीं तो यह कैसे ॥३२ जीवेगी इसके प्राण बचने कठिन हैं इस महासती माताको मैं अकेली बन में तजकर जाऊं हूं सो भुक
समान निर्दई कौन मुझे किसीप्रकार भी किसी ठौर शांति नहीं एकतरफ स्वामीकी आज्ञा और एकतरफ ऐसी निर्दयता में पापी दुखके भवण में पड़ा हूं धिक्कार पराई सेवाका जगत में निंद्य पगधीनताजोस्वामी कहे सो न करना जैसे यंत्रको यंत्री बजावे त्योंही बाजे सो पराया सेवक यंत्र तुल्यहै और चाकरसे कूकर भला जो स्वाधीन आजीवका पूर्ण करे है जैसे पिशाबके बश पुरुषज्यों वह वकावे त्यो बक तैसे नरेंद्र के वश नर वहजो आज्ञा करें सो करे चाकरक्या न करे और क्या न कहें और जैसे चित्रामका धनुष निष्प्रयोजन गुण कहिये फिणच को घरे है सदा नमीभूत है तैसे पर किंकर निःप्रयोजन गुणको धरेहे सदा नमीभूत है धिक्कार किंकरका जीवना पराईसेवा करनी तेज रहित होना है जैसे निर्माल्य बस्तु निंद्यहे तैसे पर किंकरता निंद्य धिग् २ पराधीनके प्राण धारणको यह पराधीन पराया किंकर टीकली समान है जेसे टीकली पर तंत्र होय कूपका जीव कहिए जल हरे है तैसे यह परतंत्र होय पराए प्राण हरे है कभी भी चाकर का जन्म मत होवे पराया चाकर काठकी पूतली समानहै ज्यों स्वामी नचावे त्यों नाचे उच्चता उज्वलता लज्जा और कांति तिनसेपर किंकर रहित है जैसे विमान पराएश्राधीन है चलाया चाले थमाया थमें ऊंचाचलावे तो ऊंचाचढ़े नीचाउतारे तो नीचा उतरे धिक्कार पराधीन के | जीतब्यको जो निर्मल अपनेमांसका बेवनहारा महालघु अपने आधीन नहीं मदा परतंत्राधिकारकिंकर
के प्राणधारणको में पराईचाकरीकरी और परवश भया तो ऐसे पापकर्म कोकरूं हूं, जो इसनिर्दोष महासतीको
For Private and Personal Use Only