Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥६२८॥
हीस होय रही है और गजराज चले जाय हैं जिनके स्वर्ण की सांकल और महा घटावों का शब्द होय । पुरात है और जिन के कानों पर चमर शोभे हैं और शंखों की ध्वनी होय रही है और मोतियों की झालरी
पानीके बदबूदा समान अत्यन्त सोहे हैं और सुन्दर हैं आभूषण जिन के महा उद्धत जिन के उज्वल दांतों के स्वर्ण आदि के बन्ध बन्धे हैं और रत्न स्वर्ण श्रादिक की माला तिन से शोभायमान चलते पर्वत समान नाना प्रकार के रंग से रंगे और जिन के मदझरे हैं और कारी घटा समान श्याम प्रचण्ड वेग को धरें जिन पर पाखर परी हैं नाना प्रकार के शस्रों से शोभित हैं और गर्जना करे हैं और राजन पर महादीप्ति के धारक सामन्त लोक चढे हैं और महावतों ने अति सिखाये हैं अपनी सेना का और परसेना का शब्द पिछाने हैं सुन्दर है चेष्टा जिन की और घोडों के असवार वखतर पहिरे खेट नामा
आयुध को धरे वरछी है जिन के हाथ में घोड़ों के समूह तिन के खुरों के घात से उठी जो रज उस से आकाश व्याप्त होय रहा है असा सोहे है मानो सुफेद बादलों से मण्डित है और पियादे शस्त्रों के समूह से शोभित अनेक चेष्टा करते गर्व से चले जाय हैं वह जाने में आगे चल वह जाने मैं और शयन आसन तांबूल सुगंधमाला महामनोहर वस्त्र आहार वलेपन नाना प्रकार की सामग्री वटती जाय है उस से सवही सेना के लोक सुखरूप हैं किसी को किसी प्रकार का खेद नहीं और मजल मजल कुमारों की प्राज्ञासे भले भले मनुष्यों को लोक नाना प्रकार की वस्तु देवे हैं उन को यही कार्य सौपा है सो बहुत सावधान हैं नाना प्रकारके अन्न जल मिष्टान्न लवण घत दुग्ध दही अनेकरस भांति भांति खानेकी वस्तु आदर सों देवें हैं, समस्त सेना में कोई दीन बुभुक्षित तृषातुर कुवस्त्र मलिन चिन्तावान |
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