Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay

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Page 1063
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म राम के वैराग्य भये सोलह हजार कछु अधिक महीपति मुनिभय । और सत्ताईस हजार राणी श्रीमति पुराण आर्यिका के समीप आर्यिका भइ ॥ अथानन्तर श्रीराम गुरूकी श्राज्ञालेय एकाविहारी भए तजे हैं समस्त विकल्प जिन्हों ने गिरों की गुफा और गिरों के शिखर और विषम बन जिन में दुष्ट जोव विचरें वहां श्रीराम जिनकल्पी होग ध्यान धरते भए अवधिज्ञान उपजा जिस कर परमाणु पर्यंत देखते भए और जगत् के मर्तिक पदार्थ सकल भासे लक्षमणके अनेक भव जाने मोह का सम्बन्ध नहीं इस लिये मन ममत्व को न प्राप्त होता भया अब राम की आयु का व्याख्यान सुनो कौमार काल वर्ष सौ१०० मंडलीक पद वर्ष तीन सौ३०० दिग्विजय वर्ष चालीस ४० और ग्यारह हजार पाँचसे साठ वर्ष ११५६० तीन खंड का राज्य फिर मुनि भर लक्षमण का मग्ण इसही भांति था देवों को दोष नहीं और भाई के मरण के निमित्त से राम के बराम्य का उदय था अवधिज्ञान के प्रताप कर राम ने अपने अनेक भव जाने महा धीर्य को धरे ब्रत शील के पहाड शक्ल लेश्या कर यक्त महा गंभीर गणन के सागर समाधान चित्त मोक्ष लक्ष्मी विषे तत्पर । शुद्धोपयोग के मार्ग में प्रवरते, सो गौतम स्वामी राजा श्रेणिक अादि सकल श्रोताओं से कहे हैं जैसे ।। रामचन्द्र जिनेन्द्र के माम में प्रवर्ते तसे तुम भी प्रवरता अपनी शक्ति प्रमाण महा भक्ति कर जिनशासन । | मैं तत्पर होवों जिन नाम के अक्षर महा रत्नों को पाय कर हो प्राणी हो खोटा आचरण तजो, दुराचार । | महा दुःखका दाताहै खोटे प्रन्थका मोहितह आत्मा जिनका और पाखंड क्रियाकर मलिन है, चित्त ।। जिनको वे कल्याण के मार्गको तज जन्मक अांधे की न्याई खोटे पंय में प्रवरते हैं कैयक मूर्ख साधुका .. . For Private and Personal Use Only

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