Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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२०६८
मरणकर नवमवेयक में अहिमिन्द भएं और यह पिता पुत्र तीनों मुनिताम्रचूडनामा नगर वहां केवली की वंदनाको गए सामार्ग में पचास योजनकी एक श्रखीवहां चतुर्मासिक पायपड़ा तबएकबृचकेतले तीनों साधु विराजे मानों साक्षात् स्नत्रय ही हैं वहां भामण्डल आय निकसा अयोध्या प्राने था सो विषम ! बन में मुनों को देख विचार किया, यह महा पुरुष जिन सूत्र की प्रान्ना प्रमाण निर्जन बन में विराजे चौमासे मुनियों का गमन नहीं अब यह आहार कैसे करें तब विद्या की प्रवल शक्ति कर निकट एक नगर बसाया जहां सब सामग्री पूर्ण बाहिर नानाप्रकार के उपवन सरोवर और धान के छेत्र और नगर के भीतर बड़ी वस्ती महासंपत्ति, चार महीना आपभी परिवार सहित उसनगर में रहा और मुनियों के वैयावत किये, वह बन ऐसा था जिस में जल नहीं सो अद्भुत नगर बसाया, जहां अन्नजल की बाहुल्यता सो. नगर में मुनों का आहारंभया और और भी दुखित भुखित जीवों को भान्ति भान्ति के दान दीए, और सुन्दरमालिनी राणी सहित श्राप मुनों को अनेकवार निरंतराय चाहोर दीया, चतुर्मास पूर्ण भए मुनि विहार करते भए और भामंडल अयोध्या आय फिर अपने स्थानक गया एक दिन सुन्दरमालिनी राणी सहित सुखसेशयन करे था सो महल पर विजुरी पड़ी राजा राणी दोनों मरकर मुनिदानके प्रभाव से सुमेरु पर्वत की दाहिनी ओर देवकुरू भोग भूमि वहां तीन पल्यके आयु के भोक्ता युगल उपजे, सो दानके प्रभाव से सुख भोगवे हे जे सम्यक्त रहित हैं और दान करे हैं सो सुपात्र दानके प्रभाव से उत्तमगति के सुखपावे हैं सो यह पात्रदान महासुख का दाता है यह बात सुन फिर प्रत्येन्द्र ने पूछी हे नाथ रावण तीजी भूमि से || निकस कहां उपजेगा और में स्वर्ग से चयकर कहां उपजंगा मेरे और लक्ष्मण के और रावण के केते ।
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