Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म का रूप देख मोहित भया राजाके मुनिसे राग विशेष परन्तु विवेक नहीं सो अनेक सामन्त दौडाये और |
| आज्ञाकरी स्वामी पधारे हैं सो तुम जाय प्रणामकर बहुत भक्ति बेनतीकर यहां अाहारको ल्यावा सोसामंत [ भी मूर्ख जाय पायनपर पड कहते भए हे प्रभो राजा के घर भोजन करह वहां महा पवित्र सुन्दर भोजनः । हैं पार सामान्य लोकों के घर अाहार विरस आपके लेयचे योग्य नहीं और लोकों को मने किए कि | तुम कहा दे जानों हो यह समवसनकर महामुनि आप को अनाराय जान नगर से पीछे चल सघामब लोग अति ब्याकुल भए वे महाप जिम आज्ञाके प्रतिपालक आचारांग सूत्र प्रमाणहै अाचरण जिनः का आहार के निमित्त नगर में बिहार कर अस्तराय जान मगर से पीछ बनमें गए चिद्रपध्यान विषे मान कायोत्संग घर तिष्ठे थे अतः अद्वितीय सूर्य मन और नेत्रको प्यारा लंगरूप जिनका नगर से किना हार गए तब सत्राही खेद खिन्न भये ॥ इति एकसौ इक्कीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर राम मुनियों में श्रेष्ठ फिरपंचोपवासका प्रत्याख्यान कर यह अवग्रह धारते भये कि बन । विषे कोई श्रावक शुद्ध आहार देय तो लेना नगर में न जाना इस भांति कांतारचर्या की प्रतिज्ञा करी सो एक राजा प्रतिनन्द उसको दुष्ट तुरंग लेय भागा सो लोकोंकी दृष्टिसे दूर गया तब राजाकी पटरानी प्रभवा अति चिन्तातुर शीघगामी तुरंग पर प्रारूढ राजाके पीछे ही सुभटों के समूह कर चली और राजाको तुरंग हर ले गयाथा सो बनके सरोवरों विष कीचमें फंस गया उतनेही में पटराणी जाय पहुंची राजा राणा पैगाया तब राणी राजासे हास्यके वचन कहती भई हे महाराज जो यह अश्व आप को न हरता तो यह नन्दन बन सो बन और मानसरोवरसा सर कैसे देखते, तब राजा ने कही हे राणी,
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