Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay

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Page 1070
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण १०६० I www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रही है ऐसी बसंत की लीला कर आप वहप्रवेन्द्र जानकीका रूपधर राम के समीप आया. वहम नौहर जहां और कोई जननहीं और नाना प्रकारके वृक्षसवऋतुके फूल रहे हैं. उस समय राम के समीप सीता सुन्दरी कहती भई हे नाथ पृथिवी में भ्रमण करते कोई पुण्य के योग से तुम को देखे वियोगरूप लहर का भराजो स्नेहरूप समुद्र उसविषे मैं डूबहूं सो मुझे थांभो अनेकप्रकारराग के वचनकहे परन्तुमुनिधकंप सो वह सोता का जीवमोह के उदय से कभी दाहिने कभी बाई भ्रमे कामरूप ज्वरके योगसे कंपित शरीरचौरमहा सुन्दर र है रजिसके इस भांति कहती भई हे देव में बिना बिचारे तुम्हारी आज्ञा विना दीक्षा लीना मुझे विद्याधरीयोंने बहकाया अब मेरा मन तुम में है इस दीक्षाकरपूर्णता होवे परन्तु यह दीक्षा श्रत्यन्तवृद्धों का योग्य है कहां यह यौवनावस्था और कहांयह दुर्द्धर व्रत महाकोमल फूल दावानल की ज्वाला कैसे सहार सके और हजारों विद्याघरों की कन्या और भी तुम को बरा चाहे हैं मुझे आगे घरल्याई हैं कहे हैं तुम्हारे आश्रय हम बलदेव को वरें यह कहे हैं और हजारों दिव्य कन्या नानाप्रकार के आभूषण पहरे राजहंसनी समान है चाल जिनकी सो प्रत्येन्द्र की विक्रीया कर मुनीन्द्र के समीप आई कोयल से भी अधिक मधुर बोलें ऐसी सोहें मानो साक्षात लक्ष्मीही हैं मनको आल्हाद उपजावें कानोंको अमृत समान ऐसे दिव्य गीत गावती भई और बीण बांसुरी मृदंग बजावती भई भ्रमर सारिखे श्याम केश बिजुरी समान चमत्कार महासुकुमार पातरी कटि कठोर अति उन्नत हैं कुच जिन के सुन्दर श्रृंगार करे नाना वर्ण के वस्त्र पहिरे, हाव भाव विलास विभ्रम को धरती मुलकती अपनी कांति कर व्याप्त किया है या काश जिन्होंने मुनिके चौगिर्द बैठी प्रार्थना करती भई हे देव हमारी रक्षा करो और कोई एक पूछती भई For Private and Personal Use Only

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