Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay

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Page 1068
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर नम्रोभूत महा मुनि को विधिपूर्वक निरंतराय आहार देय परम प्रबोध को प्राप्त भया अपना मनुष्य | जन्म सफल जानता भया और राममहामुनि तप के अर्थ एकांत रहें बारह प्रकार तप के करणहारे तप। ऋद्धि कर अद्वितीय पृथिवी में अद्वितीय सूर्य विहार करतेभए ।। इति एकसौवाईसवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहे हैं हे श्रेणिक वह अात्माराम महा मनि बलदेव स्वामी शांत किए हैं रागद्वेष जिस ने जो और मनुष्यों से न बनाये ऐसा तप करते भए महा बन में विहार करते पञ्चमहाबत पंच सुमति तीन गुप्ति पालते शास्त्र के वेचा जितेन्द्री जिन धर्म में है अनुराग जिनका स्वाध्याय ध्यान में सावधान अनेक ऋद्धिउपजी परन्तुऋषियों की खबर नहीं महा विरक्त निर्विकार बाईस परीषह के जीतनहारे तिन के तपके प्रवाह से बन के सिंह व्याघ मृगादिक के समूह निकट आय बैठे जीवों का जाति विरोध मिट गया राम का शांतरूप निरख शांतरूप भए श्रीराम महो ब्रती चिदानन्द में हैचित्त जिनका पर वस्तु की बांछा रहित विरक्त कर्म कलंक हरिवे का है यत्न जिनके निर्मल शिला पर तिष्ठते पद्मासन घरे प्रात्म ध्यान में प्रवेश करते भए, जैसे रवि मेश्माला में प्रवेश करे वे प्रभ सुमेरु सारिखे अचल हैचित्त जिनका पवित्र स्थानक में कायोत्सर्ग धरे निज स्वरूप का ध्यान करते भएं कबहुक विहार करे सो ईर्ष्या समतिपालते जूडा प्रमाण पृथिवी निरखते महा शांत जीव दयो प्रतिपाल देव देवांगनादिक कर पूजित भए वेगात्म ज्ञानी जिनप्राज्ञाकपालक जैन के योगी ऐसातप करते भए जो पंचम काल में कहू के चितवन में नावे एक दिन विहार करते कोटि शिला श्राए जो लक्ष्मण ने नमोकार मन्त्र जप कर उठाई थी सो अोप कोटि शिला परध्यान घर तिष्ठे कर्मों के खिवायवे विषे उद्यमी क्षपक श्रेणी चढ्वे का है मन जिनका ॥ For Private and Personal Use Only

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