Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
... गाल गाल कर प्यावे हैं । और कहे हैं यह मदिरा पीने के फल हैं कैयकों को काठ में बांधकर करौंतों ।
से चीरे हैं और कैयकों को कुठारों से काटे हैं कैयकों को पानी में पेले हैं कैयकों की अांख काढे हैं कैयकों की जीभ काढे हैं वह कर कैयकों के दांत तोड़े हैं इत्यादि नारकीयों को अनेक दुःख हैं सो अवधिज्ञानकर प्रतेन्द्रनारकीयों की पीड़ा देख शंक के समझायवे को तीजी भूमि गया सो असुर कुमार जातिके देव क्रीडा करते थेवे तो इनके तेज से डर गये और शम्बू को प्रतेन्द्र कहते भए अरे पापी निर्दई तैने यह क्या प्रारंभाजो जीवों को दुःख देवे है हे नीचदेव कर कर्म तज, क्षमा पकड़ यह अनर्थ के कारण कर्म तिनकर कहां और यह नरक के दुःख सुनकर भय उपजे है त प्रतक्षनारकियों को पीड़ा करे है करावे है सो तुझे त्रास नहीं यह वचन प्रत्येन्द्र के सुन शंबक प्रशांत भया, दूसरे नारकी तेज न सह सके रोचते भए और भागते भए तब प्रत्येन्द्र ने कही होनारकी हो मुझसे मत डरो जिन पापों कर नरक में आये हो तिनसे डरो, जब इसभांति प्रत्येन्द्र ने कही तबउनमें कैयक मनमें विचारते भए जो हमहिंसा मृषावाद परधन हरण परनारीरमण बहु प्रारंभ बहु परिग्रह में प्रवर्ते रौद्र ध्यानी भए उसका यह फल है भोगों में प्रासक्त भए क्रोधादिक की तीव्रता भई खोटे कर्म कीये उससे ऐसा दुःख पाया- देखो यह स्वर्गलोक के देव पुण्यके उदयसे नानाप्रकार के विलास करे हैं रमणीक विमान चढे जहां इच्छा होय वहांही जांय इसभांति नारको विचारते भए और शंबूककाजीव जो असुरकुमार उसको ज्ञानउपजा फिर रावण के जीरने प्रतेन्द्रसे
पूछा तुम कौन हो तब उसने सकलवृतांत कहा मैं सीता का जीव तपकप्रभाव कर सोलमें स्वर्ग में प्रत्येन्द्र | भया, औरश्रीरामचन्द्र महामुनींद्रहोयज्ञानावर्ण दर्शनावर्ण मोहिनी अंतरायनी का नाशकर केवली भए सो
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