Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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प धर्म नहीं जाने हैं और नानाप्रकारके उपकरण साधुके बतावे हैं और निर्दोष जानग्रहे हैं वे वाचाल हैं, राख । जे कुलिंग कहिये खोटे भेष मूढ़ोंने पाचरें हैं वे वृथा तिनसे मोत्त नहीं जैसे कोई मूर्ख मृतकके भारको
वहे है सो व्या खेद करे है जिनके परिग्रह नहीं और काहूसे याचना नहीं वे ऋषिहैं वेई निर्ग्रन्थ उत्तम गुणेकर मंडित पंडितों कर सेयवे योग्य हैं यह महावली बलदेवके वैराग्यका वर्णन सुन संसारसे विरक्त होवो जिसकर भवताप रूप सूर्यका अाताप न पावो ॥ इति एकसौ बीसवां पर्व संपूर्णम् ॥
अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं। हे भव्योत्तम श्री रामचन्द्र के अनेक गुणा धरणींद्र | भी अनेकजीभ कर गायबे समर्थ नहीं वे महामुनीश्वर जगतकेत्यागी महाधीर पंचोपवास की है प्रतिज्ञा । जिनके सो ईर्या समति पालते नन्दस्थली नामा नगरी वहां पारणा के अर्थ गये उगते सूर्य समानहे । दीप्ति जिनकी मांनों चालते पहाड़ही हैं महा निर्मल स्फटिकमणि समान शुद्ध हृदय जिनका वे पुरुषो|त्तम मानों मूर्तिवंत धर्मही मानों तीन लोकका आनंद एकत्रहोय रामकी मूर्ति निपजी है महा कांति । के प्रवाहकर पृथ्वी को पवित्र करते मानों आकाश विषे अनेक रंगकर कमलों का वन लगावते नगर में प्रवेश करते भए तिनके रूप को देख नगरके सब लोक चोभको प्राप्त भये लोक परस्पर बतलावें
हैं अहो देखो यह अद्भुतरूप ऐसा प्राकार जगतमें दुर्लभ कभी देखिबे में न आवे यह कोई महापुरुष | महासुन्दर शोभायमान अपूर्व नर दोनों बाहु लुम्बाये श्रावे है धन्य यह धीर्य धन्य यह पराक्रम धन्य
यह रूप धन्य यह कांति धन्य यह दीप्ति धन्य यह शांति धन्य यह निर्ममत्वता यह कोई मनोहर पुराण पुरुषहै ऐसा और नहीं जुड़े प्रमाण धरती देखता जीवदया पालता शांत दृष्टि समाधान चित्त
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