Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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4 वृद्ध भया ऐसी माता को भी इने हैं धिकार इस संसार की चेष्टा को जो पहिले स्वामी था और बार बार १०७२॥
नमस्कार करता सो भी दोस होय जाय है तब पायों की लातों से मारिये है, हे प्रभो मोह की शक्ति देखो इसके वश.भया यह जीवश्राप को नहीं जाने हे परको आपा माने है, जैसे कोई हाथ कर कारे नाग को गहे तैसे कनककामिनी को गहे है इस लोकाकाशमें ऐसा तिल मात्र क्षेत्र नहीं जहाँ जीवने जन्म मरण न | कीये और नरक में इसको प्रज्वलित ताम्बाप्यायाऔर एतीवार यह नरककोगया जो उसकाप्रज्वलित ताम्र पान जोड़िये तो समुद्र के जल से अधिक होय और सूकर कूकर गर्दभ होय इस जीवने एता मल का श्राहार काया जो अनन्त जन्म का जोड़ियेतो हजारां विन्ध्याचल की राशी से अधिक होय और इस अज्ञानी जीव नेक्रोधके वशसे एते पराये सिर छेदे और उन्होंने इसके छेदे जो एकत्र करिये तो ज्योतिषचत्र को उलंघ कर यह सिर अधिक होवें जीव नरक प्राप्त भयावहां अधिक दुःख पाय निगोद गया वहां अनन्तकाल जन्म मरण कीये यह कथा सुनकर कौन मित्र से मोह माने एक निमिष मात्र विषय का सुख उसके अर्थ कौन अपार दुख सहे, यह जीव मोहरूप पिशाच केवशपड़ा उन्मत्त भया संसारबन में भटके है । हे श्रेणिक विभीषण राम से कहे है हे प्रभो यह लक्ष्मण का मृतक शरीर तजबे योग्य है । और शोककरना योग्य नहीं यह कलेबर उर से लगाय रहना योग्य नहीं, इसभांति विद्याधरों का सूर्य जो विभीषण उसने श्रीराम से बेनती करी और राम महा विवेकी जिन से और प्रति बुद्ध होंय तथापि मोह के योग से लक्ष्मण की मूर्ति को न तजी जैसे विनयवान् गुरुकी आज्ञा न तजे ॥ इति ११८ एक सो अठारवां पर्व संपूर्णम् ॥ ____ अथानन्तर सुग्रीवादिक सब राजा श्रीरामचन्द्र से बेनती करते भए अब वासुदेव की दग्ध क्रिया
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