Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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है, इन्द्र धरणोंद चक्रवर्ती आदि अनन्त नाश को प्राप्त भए जैसे मेघ कर दावानल बझे तैसे शान्ति पुराण | रूप मेव कर कालरूप दावानल बुझे और उपाय नहीं पाताल में भूतल में और स्वर्ग में ऐसा कोई १०४१
स्थानक नहीं जहां काल से बचे, और छठेकाल के अन्त इस भरतक्षेत्र में प्रलय होयगी पहाड़ विलय हाय जावेंगे तो मनुष्यकी कहा बात जे भगवान तोर्थकरदेव वज्रबृषभ नाराच संहननकेधारक जिनके सम चतुर संस्थानक सुर असुर नरोंकर पूज्य जो किसी कर जीते न जांय तिनको भी शरीर अनित्य वेभी देहतज सिद्धलोक में निजभावरूप रहैं । तो औरोंका देह कैसे नित्य होय सुर नर नारक तिर्यचोंका शरीर केले के गर्भ समान असार है । जीव तो देह का यत्न करे है । और काल प्राण हरे है. जैसे विलके भीतर से गरुड सर्प को लेजाय तैसे देह के भीतर से जीवको काल लेजाय है, यह प्राणी अपने मवों को रोवे है हाय भाई, हाय पुत्र, हाय मित्र, इसभांति शोक करे है और कालरूप सर्प सबोंको निगले है जैसे सर्प मींडक को निगले, यह मढ बुद्धि झठे विकल्प करे है यह में कीया यह में करूं हूं यह करूंगा सो ऐसे विकल्प करता काल के मुख में जाय है जैसे ट्टा जहाज समुद्र के तले जाय । परलोक को गयो जो सज्जन उस के लार कोई जायसके तो इष्ट का वियोग कभी न होय जो शरीरादिक पर वस्तु से स्नेह करे हैं सो क्लेशरूप अग्नि में प्रवेश करे हैं । और इन जीवोंके इस संसार में एते स्वजनों के समूह भए जिनकी संख्या नहीं। जे समुद्र की रेणुकाके कण तिमसे भी अपार हैं और निश्चय कर देखिये तो इस जीव के न कोई शत्रु है। न कोई मित्र है, शत्रुतो रागादिक हैं, और मित्र ज्ञानादिक है। जिस को अनेक प्रकार कर लडाईये और निज जानिये सो भी बैर को प्राप्त भया महा रोस कर हणे, जिसके स्तनों का दुग्ध पीया जिसकर शरीर ।
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