Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म मित्र मेरा वह स्वामी था में उसका सेनापति था मुझे बहुत लड़ाया भ्रात पुत्रोंमे भीअधिक गिना और मेरे !
उनके वचन है जब तुमको खंद उपजेगा तब तुम्हारे पास में पाऊंगा, सो ऐसा परस्पर कह कर वे दोनों देव चौथे स्वर्ग के वामी सुन्दर प्राभूषण पहिरे मनोहर हैं कश जिन के मा अयोध्या की ओर आये दोनों विचवण परस्पर दोनों बतलाये कृतांतवक्र जीवने जगायक जीवसे कहा तुम तो शत्रुओं की सेनाकी ओर । जावो उन की बद्धि हरो और में रघुनाथके समीपजाऊहूं नर जटायुका जीव शत्रुाकी अोरगया कामदेव
का रूपकर उनको मोहित कोयाऔर उनको ऐमी माया दिखाई जो अयोध्या के आगेग्रोरपाछेदुग्गमपहाड़ । पडे हैं और अयोध्या अपार है यह अयोध्या काह से जीती न जाय यह कौशल पुरी सुभटों कर भरी
है कोट अाकाश लग रहे हैं और नगर के वाहिर भीतर देव विद्याधर भरे हैं हम ने न जानी जो यह नगरी महाविषम है धरती में देखिये तो आकाश में देखिये तो देव विद्याधर भर रहे हैं अब कौन प्रकार हमारे प्राण बचें कैसे जीवते घर जावें जहाँ श्रीरामदेव विराजें सो नगरी हम से कैसे लई जाय, ऐसी विक्रीयाशक्ति विद्याधरों में कहां हम विनाविचारे ये काम किया जो पटबीजना सूर्यसे वैर विचारे तो क्या कर सके अब जो भागों तो कौन राह होयकर भागों मार्ग नहीं इस भाँति परस्पर वार्ता कर कांपने लगे समस्त शत्रयों की सेना विहल भई तब जटायु केजीवने देव विकया की कीड़ाकर उनको दक्षिणकी ओर भागने का मार्ग दीया वे सब प्राणरहित होय कांपते भागे जैसे सिचान अागे परे वा भागे आगे जायकर इन्द्र जीत के पुत्र ने बिचारी जो हम विभीषण को कहां उत्तर देंगे और लोकों कोक्या मुख दिखावेंगे असा विचार लज्जावान होय सुन्दर के पुत्र चारों रत्न सहित और विद्याधरों सहित इन्द्रजीत
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