Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
चरा
१६४७
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रूप घरे हैं आकाश के मार्ग होय महा विभूति सहित सर्व दिशा में उद्योत करते आए मुकटघरे हार कुण्डल पहिरे अनेक ग्राभूषणों कर शोभित सकलभूषण केवली के दर्शन को प्राये पवन से चंचल है ध्वजा, जिनकी अप्सरावों के समूह सहित अयोध्या की ओर आए महेंद्रोदय उद्यानमें केवली विराजे हैं तिनके चरणारविंद विषे है मन जिनका पृथ्वी की शोभा देखते आकाश से नीचे उतरे और सीता के दिव्य को अग्निकुंड तयार होय रहाथा सो देखकर एक मेघकेतु नामा देव इन्द्रसे केहता भया हे देवेंद्र हे नाथ सीता महासतीको उपसर्ग आय प्राप्त भया है यह महाश्राविका पतिव्रता शीलवंती अति निर्मल चित्तहै इसे ऐसा उपद्रव क्यों होय तब इंद्रने आज्ञा करी हे मेघकेतु मैं सकलभूषण केवली के दर्शन को जाऊं हूं और तु महासतीका उपसर्ग दूर करियो इसभांति आज्ञाकर इन्द्रतो महेंद्रोदय नामा उद्यान में केवल के दर्शनको गया और मेघकेतु सीता के अग्निकुंड के ऊपर चाय श्राकाश विषे विमान
तिष्ठा कैसा है विमान सुमेरुके शिखर समान है शोभा जिसकी वह देव श्राकाशविषे सूर्य सारिखा देवीमान श्रीरामका और दखे गम महासुन्दर सब जीवों के मनको हरें हैं ।। इति १०४वां पर्व संपूर्णम् ।।
यान्तर श्रीराम उस अग्निवाका को निरखकर व्याकुल मन भया बिचारे है अब इस कांता को वहां देखूंगा यह गुणों की खान महा लावण्यता कर युक्त कांतिकी धरणाहारी शील रूप बस्त्रकर मंडित मालती की माला समान सुगंध सुकुमार शरीर अग्नि के स्पर्शही से भस्म होय जायगी जो यह राजा जनक के घर न उपजती तो भला था यह लोकापवाद अग्नि विषे मरण तो न होता इस बिना के भी सुख नहीं इस सहित वनमें वास भला और इस बिना स्वर्गका वास भी भला
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