Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराब १६७
देख ग्लानि करनी और अन्यदृष्टि प्रशंसा कहिये मिथ्या दृष्टी को मनमें भला जानना और संस्तव, कहिये बचन कर मिथ्या दृष्टिकी स्तुति करणा, इनकर सम्यक्तमे दूषण उपजे है और मैत्री प्रमोद करुणा मध्यस्थ ये चार भावना अथवा अनित्यादि बारह भावना अथवा प्रशमसंवेग अनुकंपा अस्ति और शंकादि दोष रहित पना जिन प्रतिमा जिनमंदिर जिनशास्त्र मुनिराजोंकी भाक्त इन कर सम्यकदर्शन निर्मल होय है और सर्वज्ञ के बचन प्रमाण बस्तु का जानना सो ज्ञानका निर्मलता का कारण है
और जो किसी से न सधे ऐसी दुर्धर क्रिया आचरणी उसे चारित्र कहिये पांचों इंद्रियोंका निरोध वचन का निरोध सर्व पापक्रियावों का त्यागसो चारित्र कहिये त्रस स्थावर सर्व जीवकी दया सबको आप समान जाने सो चारित्र कहिये, और सुनने वालेके मन और कानोंको अानंदकारी स्निग्ध मधुर अर्थ संयुक्त कल्याणकारी वचन बोलना सो चारित्र कहिये, और मन वचन काय कर परघनका त्याग करना किसोका विनादोया कुछ नलेना और दीयाहुआ भीआहारमात्र लेना सो चारित्र कहिये और जो देवोंकर पज्य महादुर्धर ब्रह्मचर्यव्रतका धारणसोचारित्रकहियेऔरशिवमार्गकहियनिर्वाणकामार्गउसे विघ्नकरणहारी मूळ कहिये मनकी अभिलाषा उसका त्याग सोई परिग्रहका त्याग सा भी चारित्र कहिये है. ये मुनियोंकेधर्म । कहे और जो अणबतीश्रावक मुनियोंको श्रद्धाश्रादि गुणोंकरयुक्त नवधाभक्तिकर आहार देना सो एक देश चारित्र कहिये और परदारा परधनका परिहार पर पीडाका निवारण दया धर्मका अंर्ग:कार दान शीलपूजा प्रभावना पर्बोपवास वैराग्य बिनय विवेक ज्ञान मन इंद्रियोंका निगेध ध्यान इत्यादिधर्मका आचरण सो एकादेशचारित्र कहिये यह अनेक गुण कर युक्त जिनभासितचारित्र परमधामका कारण कल्याणकी प्राति ।।
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