Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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घराण ४७१,
पन केवलीने कहे तब श्रीरामचन्द्र हाथ जोड सीस निवाय कहते भए हे भगवान में कौन उपायकर भव
भ्रमण से ढूंट्रं में सकल राणी और पृथ्वीका राज्य तनवे समर्थ हूं परन्तु भाई लक्ष्मणका स्नेह तजवे. समर्थ नहीं स्नेह समुद्र की तरंगों में डूबहूं आप धर्मोपदेश रूप हस्तालंबन कर कादो हे करुणानिधान मेरी रमा लगे, नन भगवान कहने भए हे गम शोक न कर तू बलदेवहै कैयक दिन वासुदेव सहित इंद्र की न्याई इस पृथिवी का राज्य कर जिनेश्वर का व्रत धर केवल ज्ञान पावेगा, ए केवलीके वचन सुन श्रीरामचन्द्र हर्ष कर रोमांचित भए नयनकमल फलगए बदनकमल विकसित भया परम धीर्य युक्तहोते भए और रामको केवलीके मुखसे चरमशरीरीजान सुरनर असुर सबही प्रशंसाकरअतिप्रीति करते भए।इति१० ___ अथानन्तर विद्याधरों विपै श्रेष्ठ राजा विभीषण रावण का भाई सुन्दर शरीर का धारक राम की भक्तिही है भाभपण जिसके सो दोनों कर जोड प्रणाम कर केवलीको पूछता भया, हे देवाधिदेव श्री रामचन्द्र ने पूर्व भव में क्या सुकृतकिया जिसकर ऐसी महिमा पाई और इनकी स्त्री सीता दण्डक बन से कौन प्रसंगार रावण हरलेगया धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ का बेत्ता अनेक शास्त्रका पाटी। कृय कृत्यको जाने धर्म अधर्म को पिछाने प्रधान गुण संपन्न सो काहे से मोह के वश होय पर स्त्री ।। के अभिलारा रूप अग्नि विपे पांग के भाव को प्राप्त भया और लक्षमण ने उसे संग्राम में हता। राग ऐसा बलवान विद्याधरों को नहेश्वर अनेकअद्भुत कायों का करण हारा, सो कैसे ऐसे मरणको
प्राप्तभया, तब केवली अनेक जन्म की कथा विभीषणको कहते भये हे लंकेश्वर राम लक्षमण दोनों अनेक || भाभाई हैं और रावण के जीव मे लक्षमण के जीवका व ल भव से रैर है सो सुन.जबूदीप के भरत
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