Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुरा १०११५
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सर्प के फण समान भयंकर हैं परम दुःख के कारण हम दूरही से छोड़ा चाहें हैं इस जोवके कोई माता पिता पुत्र मित्र बांधव नहीं कोऊ इसका सहाई नहीं यह सदा कर्म के आधीन भव वन में भ्रमण करे है इस के कौन जीव कौन कौन संबंधी न भये हे तात हम सो तुम्हारा अत्यन्त वात्सल्य है और मातावों का है सो एही बन्धन है हमने तुम्हारे प्रसाद से बहुत दिन नाना प्रकार संसार के सुख भोगे निदान एक दिन हमारा तुम्हारा वियोग होयगा इस में संदेह नहीं इस जीवने अनेक भोग किए परन्तु तृप्त न भया ये भोग रोग समान हैं इन में अज्ञानी राचें और यह देह कामत्र समान है जैसे कुमित्रको नाना प्रकार कर पोषये परन्तु वह अपना नहीं तेसे यह देह अपना नहीं इस के अर्थ आत्मा का कार्य न करना यह विवेकियों का काम नहीं यह देह तो हमको तजेगी हम इस से प्रीति क्यों न तजें ये वचन पुत्रों के सुन लक्ष्मण परम स्नेह कर विल होय गए इनको उर से लगाय मस्तक चूच बारम्बार इन की और देखते भए और गदगद बाला कर कहते भए हे पुत्र ये कैलाश के शिखर समान हंबरत्न ऊंचे महिल जिनके हजारों कनक के स्तम्भ तिन में निवास करो नानाप्रकार रत्नों से निरमार है मांगन जिनके महा सुन्दर सर्वउपकरणों कस्मंडित मलियागिरि चन्दनकीचा सुगंध जहां उसकर भूमर गुजार करे हैं और स्नानादिक की विधि जहां ऐसी मंजन शाला और सब संपति से भरे निर्मल है भूमि जिनकी इन महिलों में देवों समान कोड़ा करो और तुम्हारे सुन्दर खो देवांगना सगोन दिव्यरूप शरद के पूनों के मापन प्रजा जिनकी अनेक गुणकर मंडित वीस बांसुरी मृगादि कवादित्र बजाय विषे निपुण महा लुकंठ सुन्दरी गावे में निपुण नृत्यकीकरण हारी जिनेंद्र
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