Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobetirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पुराख
पद्म
|| सहित पूजा करे हैं धर्म अर्थ काम मोत यह वारों पुरुषार्थ हैं तिन विषे लगा है चित्त जिनका जिनेंद्रदेव । ।१०२६॥ पृथिवी रूप स्त्री को तजकर सिद्ध रूप बनिता को बरते भए कैसी है पृथिवी रूप स्त्री विन्ध्याचल और
कैलाश हैं कुच जिस के और समुद्र की तरंग हैं कटिमेखला जिसके ये जीव अनाथ महा मोह रूप अंधकार कर अालादित तिनको वे प्रभु स्वर्ग लोकसे मनुष्य लोक विषे जन्म धर भवसागरसे पार करते भए अपने अद्भुतानन्तवीर्य कर आठों कर्मरूप वैरी क्षणमात्र में खिपाए जैसे सिंह मदोन्मत्त हस्तियों को नसावे भगवान सर्वज्ञदेव को अनेक नामकर भव्यजीव गावे हैं जिनेंद्र भगवान अहंत स्वयंभू शंभ स्वयंप्रभ सुगत शिवस्यान महादेव कालजर हिरण्यगर्भ देवाधिदेव ईश्वर महेश्वर ब्रह्मा विष्णु बुद्ध बीतराग विमल विपुलप्रबल धर्म चक्री प्रभु विभु परमेश्वर परमज्योति परमात्मा तीर्थकर कृतकृत्य कृपाल संसार सूदन सुर ज्ञान चतु भवातक इत्यादि अपार नाम योगीश्वर गावें हैं और इंद्रधरणीन्द्र चक्रवर्ती । भक्ति कर स्तुति करे हैं जो गोप्य हैं और प्रकटहैं जिनके नाम सकल अर्थ संयुक्त हैं जिनके प्रसाद कर यह जीव कर्म से छूट कर परम घामको प्राप्त होय है जैसा जीवका स्वभाव है तैसा वहां रहे है जो ।। स्मरण कर उसके पाप बिलय जांय वह भगवान पुराण पुरुषोत्तम परम उत्कृष्ट आनन्द की उत्पति
का कारण महा कल्याण का मूल देवों के देव उनके तुम भक्त होवो अपना कल्याण चाहो हो तो अपने हृदय कमलमें जिनराजको पधरावो, यह जीव अनादि निधनहै कर्मोंका प्रेरा भव बनमें भटके है सर्व जन्ममें मनुष्य भव दुलभहै सो मनुष्य जन्म पायकर जे भूले हैं तिनको धिक्कार है चतुर्गति रूपहै भूमण जिस विषे ऐसा संसाररूप समुद्र उसमें फिर कब बोध पावोगेजे अहतका ध्यान नहीं करे |
For Private and Personal Use Only