Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पुराण
पद्म भई पति के गुण अत्यन्त मधुर स्वर से गावती भई पति के प्रसन्न करिये विषे उद्यमी है चित्त जिनका
कोई एक पति का मुख देखे है और पति के वचन सुनिवेकी है अभिलाषा जिनकेकोई एक निर्मल स्नेहकी धरणहारी पति के तनु से लिपट कर कुण्डल कर मंडित महा सुन्दर कांत के कपोलोंको स्पर्शती भई और कोई एक मधुरभाषिणी पति के चरण कमल अपने सिर पर मेलती भई और कोई मृगनयनी उन्माद की भरी विभ्रम कर कटाक्ष रूप जे कमल पुष्प तिनका सेहरा रचती भई जंभाई लेती पति का बदन निरखती अनेक चेष्टा करती भई, इस भांति यह उत्तम स्त्री पति के प्रसन्न करिख को अनेकयत्नकरे हैं परन्तु उन के यत्न अचेतन शरीर विषे निरर्थक भए वे समस्त राणी लक्ष्मण की स्त्री ऐसे कंपायमानहें जैसे कमलों का बन पवन कर कंपोयमान होय नाथ की यह अवस्था होते संतेस्त्रियों का मन प्रतिव्याकुल भयो संशय कोप्राप्तभई किक्षणमात्रमें यहस्याभया चितवनमेंनभावे पोरकथनमेंनभावे ऐसारखेदकाकारणशोकउसेमन में धर कर वे मुग्धा मोह की मारी पसर गई, इंद्र की इंद्राणी समान है चेष्टा जिनकी ऐसी वे राणी ताप कर तप्तायमान मूक गई न जानिए तिनकी सुन्दरता कहां जाती रही यह बृतान्त भीतर के लोकों के मुख से सुनश्रीरामचन्द्र मंत्रियों कर मंडित महा संभ्रम के भरे भाई पैाए भीतर राजलोक में गए लक्ष्मण का मुख प्रभातके चन्द्रमा समान मन्दकांति देखा जैसा तत्कालका वृक्ष मलसे उखड़ पड़ा होय तैसा भाईको देखा मन में चितवते भए बहू क्या भया विना कारण भाई प्राज मोसे रुसाहै यह सदा अानन्द रूप ।
आज क्यों विषाद रूप होय रहा है स्नेह के भरे शीघ्र ही भाई के निकट जाय उस को उठाय उर से | लगाय मस्तक चूमते भए दाहे का मारी जो वृक्ष उस समान हरि को निरख हलधर अंग से लपट गया |
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