Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
१०३७
उपजे और यह तुम्हारा चक्र तुम से अनुरुक्त इसे तजना तुम को क्या उचित और तुम्हारे वियोग में मुझे अकेला जान यह शोक रूप शत्रु दवावे है अब में हीनपुण्य क्या करूं मुझे अग्नि ऐसे न दहे और ऐसा विष कंठ को न सोखे जैसा तुम्हारा विरह सोखे है अहो लक्ष्मीधर क्रोधतज घनीबेर भई और तुम ऐसे धर्मात्मा त्रिकालसामायिक के करणहारे जिनराज की पूजामें निपुणसो सामायिक का समयटलपूजा का समय टला अब मुनियों के अाहार देयवे की बेला है सो उठो तुम सदा साधुवों के सेवक ऐसा प्रमाद क्यों करो हो, अब यह सूर्याभी पश्चिम दिशा को प्राया कमल सगेवर में मुद्रित होय गये तैसे तुम्हरे दर्शन विना लाकोंके मन मुद्रित होय गये इस प्रकारविलाप करतेकरते दिन व्यतीत भयानिशा भई तबरााम सुंदर सेज विछाय भाई को भुजावों में लेय सूते किसीकाविश्वास नहीं रामनेसव उद्यम तजेएकलक्षमण में जाव, रात्रि को कानों में कहे हे हे देव अब तो मैं अकेला हूं तुम्हारे जीव की बात मुझे कहो तुम कौन कारण असी अवस्था का प्राप्त भये हो तुम्हारे बदन चन्द्रमा से अतिमनोहर अब कांति रहित क्यों भाले है और तुम्हारे नेत्र मंद पवन कर चंचल जो नीलकमल उससमान अब और रूप क्यों भामे हैं अहो तुम को क्या चाहीए सो ल्याऊं हे लक्षमणसी चेष्टा करनी तुमको सोहे नहीं जोमन में होय सो मुखकर आज्ञा करा अथवा सीता तुमको याद आई होय वह पतिव्रता अपने दुःख में सहाय थी सो तो अब परलोक गई तुम दो खेद करना नहीं हे धीर विषाद तजो विद्याधर अपने शत्रु हैं सो छिद्र देख आये अव अयोध्या लुटेगी इसलिये यत्न करना होय सो करो और हेमनोहर तुम काह से क्रोध ही करते तबभी असे अप्रसन्न देखे नहीं अब असे अप्रसन्न क्यों भासो हो हे वत्स अब ये चेष्टा तजा प्रसन्न होवो में तुम्हारे ।
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