Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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१०३२॥
पुराग यद्यपि जीतब्यता के चिन्हरहित लक्ष्मण को देखा तथापि स्नेह के भरे राम उसे मवा न जानते भए । | वक्र होय गई है ग्रीवा जिसकी शीतल होय गया है अंग जिसका जगत्की अागल ऐसी भुजा सो शिथिल ।
हीय गई सांमो स्वास नहीं नेत्रोंकी पलक लगेन विघटेलक्षमणकी यह अवस्थादेख रामखेदखिन्न होय कर ।। पसेव से भर गए यह दीनों के नाथ राम दीन होय गये बारम्बार मा खाये पड़े आसुवों कर भरगए हैं नेत्र जिनके भाई के अंग निरखे इसके एक नख की भी रेख न आई कि ऐसा यह महा बली कौन ।
कारणकर ऐसी अवस्थाको प्राप्त भया यह विचार करते संते भयाहै कंपायमान शरीर जिनका यद्यपि श्राप । सर्व विद्याके निधान तथापि भाईके मोहकर विद्या बिसरगई भू का यत्न जाने ऐसे वैद्य बुलाए मंत्र | ओंगधि विषे प्रवीण कलाके पारगामी ऐसे वैद्य प्राय सो जीवता होय कछु यत्न करें वे माथा धुन नीचे होय रहे तब राम निराश होय मूर्खा खाय पडे जैसे वृक्षकी जड़ उखड जाय और बृक्ष गिर पडे तैसे आप पडे मोतियों के हार चन्दन कर मिश्रित जल ताडके बीजनावोंकी पवनकर रामको सचेत । किया तब महा विह्वलहोय बिलाप करते भए शोक और विषादकर महा पीडित राम श्रासुवोंके प्रवाह | कर अपना मुख प्राछादित करते भये श्रासुत्रों कर पाछादित राम का मुख ऐसा भासे जैसा जल धारा कर माछादित चन्द्रमा भासे अत्यन्त विह्ववल राम को देख सर्वराज लोक रूप समुद्र से रुदन रूप ध्वनि प्रकट होती भई दुख रूप सागर विषे मग्न सकल स्त्री जन अत्यर्थ पणे रुदन करती भई तिनके शब्द कर दशों दिशा पूर्ण भई कैसे विलाप करें हैं हाय नाथ पृथ्वीको आनन्दके कारण सर्व सुन्दर हमको बचन रूप दान देवो तुमने बिना अर्थ क्यों मौन पकडी हमारा अपराध क्याबिना ,
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