Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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परा
पद्म हैं अहो धिक्कार उनको जे मनुष्य देह पाय कर जिनेन्द्रको न जपे हैं जिनेंद्र कर्म रूप वैरीका नाश !
करगाहाग उमे भूल पापी नाना योनिमें भ्रमण करे हैं कभी मिथ्या तपकर तुद्र देव होयहें फिर मरकर | स्थावर योनिमें जाय महा कष्ट भोगे हैं यह जीव कुमार्गके आश्रयकर महा मोहके बशभए इन्द्रोंका इंद्र जो जिनेंद्र उसे नहीं ध्यायें हैं देखो मनुष्य होयकर मूर्ख विषयरूप मांसके लोभी मोहिनी कर्म के योग कर अहंकार ममकारको प्राप्त होयहैं जिनदीचा नहीं धरे हैं मन्दभागियों को जिन दीक्षा दुर्लभ है कभी कुतपकर मिथ्या दृष्टि स्वर्ग में पान उपजे हैं सो हीन देव होय पश्चात्ताप करे हैं कि हम मध्य लोक रत्नदीप विष मनुष्य भए थे सो अहंतकामार्ग न जाना अपना कल्याण न किया मिथ्या तपकर कुदेव भए हाय हाय धिक्कार उनपापियोंकोजो कुशास्त्रकी प्ररूपणाकर मिथ्या उपदेशदेय महामानके भरे जीवों । को कुमार्गमें डारे हैं मूढ़ोंको जिनधर्म दुर्लभ है इस लिये भव भवमें दुःखी होयहैं और नारकी तिर्यंचतो दुखी हो हैं और हीन देव भी दुखो ही हैं और बड़ी ऋद्धिकेधारी देव भी स्वर्ग से चये हैं सो मरण का बड़ा दुःख है ।
और इष्ट वियोग का बड़ा दुःख है बड़ेदेवोंकी भी यह दशा तो और क्षद्रों की क्या बात जो मनुष्य देह में ज्ञान पाय अात्म कल्याण करे हैं सो धन्य हैं इन्द्र इसभांति कहकर फिर कहता भया ऐसा दिन कब होय जो । मेरी स्वर्ग लोक में स्थिति पूर्ण होय और में मनुष्य देह पाय विषय रूप वैरियों को जीत कर्मों का । नाश कर तप के प्रभाव से मुक्ति पाऊँ तब एक देव कहता भया यहां स्वर्ग में तो अपनी यही बुद्धि । होय है परन्तु मनुष्य देह पाय भूल जाय हैं जो कदाचित् मेरे कहेकी प्रतीति न करो तो पांचमें स्वर्ग । का ब्रह्मेन्द्रनामा इन्द्र अब रामचन्द्र भया है सो यहां तो योंही कहते थे और अब वैराग्यका विचार ही ।
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