Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पक्ष तारा टा सो हनमानने देखकर मन में विचारी हाय हाय इस संसास्त्रसार-पसमें देव भी कालवश हैं २०२२ ऐसा कोई नहीं जो कालसे बचे विजुरी का चमत्कार और जल की तरंम जैसे क्षणभंगुर हैं तैसे शरीर
विनश्वर है इस संसारमें इस जीव ने अनन्त भव में दुःखही भोगे, यह जीव विषय के सुख को सुख माने है सो सुख नहीं दुःख ही है पराधीन है विषम क्षणभंगर. संसार में दुःखहीहै सुसनहीं अहोयह मोह का माहात्म्य है जो अनन्त काल जीव दुःख भोगता भ्रमण करे है अचन्वावसर्पणी काल भ्रमणकर मनुष्य देह कभी कोई पावे हे सो पायकर धर्म के साधन वृथा खोवे है यह विनाशिक सुख में प्रासक्त होय महा संकट पाये है यह जीव रागादिक के बश भया वीतराग भाव को नहीं जाने है यह इन्द्रिय जैन मोर्ग के आश्रय बिना न जीते जांय यह इन्द्री चंचल कुमार्ग के विषे लगायकर जीवों को इस भव परभव में दु:खदाई हैं जैसे मृग मीन और पक्षी लोभ के बश से बधिक के जाल में पड़े हैं तैसे यह कामी क्रोधी लोभी जीव जिन मार्गको पाए बिना अज्ञान के वश से प्रपंच रूप पारधी के विछाए विषय रूप जाल में पड़े हैं जो जीव अाशाविष सर्प समान यह मन इन्द्री तिन के विषयों से रमें हैं।
सो मुढ़े अग्नि में जरे हैं जैसे कोई एकदिन राज्य कर वर्ष दिन त्रास भोगवे तैसे यह मूढजीव अल्पदिन । विषियों के सुख भोग अनन्त काल पर्यंत निगोद के दुःख भोगवे हैं जो विषय के सुख का अभिलाषी है । सो दुःखों का अधिकारी है, नरकनिगोद के मूल यह विषय तिनको ज्ञानी न चाहे मोहरूप देगका टगा
जो आत्म कल्याण न करे सो.महा कष्ट को पावे जा पूर्वभव में धर्म उपार्जे मनुष्य देह पाय धर्मका प्रा| दर न करे सो जैसे धन ठयाय कोई दुखी होय तैसे दुखी होय है और देवों केभी भोगभोग यहजीव मरकर
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