Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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परराण
पद्म | देवसे एकेन्द्री होय हें इसजीव के पाप शत्रु हैं और कोई शत्र मित्र नहीं और यह भोग ही पाप के मल हैं १०२३॥
इस से तृप्ति न होय, यह महा भयंकर हैं और इनका वियोग निश्चय होयगा यह रहने के नहीं जो में इस राज्य को और यह जोमियजन हैं तिनको तजकर तप न करूं तो अतृत्भया सुभूमि चक्रवर्ती की नाई मरकर: दुर्गति को जाऊंगा और यह मेरे स्त्री शोभायमान मृगनयनी सर्व मनोरथ की पूर्ण हारी पतिव्रता स्त्रियों के गुणों कर मंडित नवयौवन हैं सो अवतक में अज्ञानसे इनको तज न सका सों में अपनी भल को कहां लक उराहना दूं देखो में सागर पर्यंत स्वर्ग में अनेक देवांगना सहित रमा और देव से मनुष्य होय इस चेत्रमें भवा सुन्दर स्त्रियों सहित रमा परन्तु तृप्त न भया जैसे इंधन से अग्नि तृप्त न होय
और नदियों से समुद्र तृप्त न होय तैसे यह प्राणी नाना प्रकार के विषय सुख तिन कर तृप्त न होय में नाना प्रकार के जन्म तिममें भ्रमण कर खेद खिन्न भया रे मत अब तू शांतता को प्राप्तहोह कहाँ ज्याकुल होयारहाहै क्या तैमे भयंकर मराकों के दुस्सम सुमे जहां रौद्र यामी हिंसक जीव जायहें जिन नरकोंमें महातील वेदमा असिपज बन पैसरमाी नदी संकट रूपहे सकल भूमि जहारे मन तू नरकसन हरे हे रागद्वेष कर उपजे अकर्म झालंक तिनको सपकर नाहि विपाये है तेरेएते दिन योंही वृधा मए विषय सुखरूप में पड़ा अपने आत्माको भवञ्जिाले निकास पाया जिम मार्ग में बुद्धिकाधक स मैंने लू अनादिकासका संसार मनसे खेदखिन्न भया अब अनादिके बंधे श्रात्मा को छुड़ाय हनुमान हेसम्म निश्चयकर संसार शरीफ भोगोंसे उदास भया जाना है यथार्थ जिनशासमका रहस्य जिसने जैसे सूर्य | मेघरूप पटलसे रहिन महा तेजरूप भासे तैसे मोइपटलसे रहित भासताभया जिस मार्ग होय जिनवर ।
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