Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay

View full book text
Previous | Next

Page 1026
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पभ पगगा जान समस्त लौकिककार्य को निरर्थक मानदुःम्वरूप इन्द्रियोंके सुख तिनको तजकर परलोक सुधारिखके अर्थ । जिनशासनमें श्रद्धाकरो, भामंडल मरकर पात्रदानके प्रभावसे उत्तमभोग भूमिगया। इति १११ वां पर्व ॥ __ अथानन्तर राम लक्ष्मण परस्पर महास्नेह के भरे प्रजा के पिता समान परम हितकारी तिन का। राज्य विष सुख से समय व्यतीत होता भया, परमईश्वरता रूप अति सुन्दर राज्य सोई भया कमलों का बन उसमें क्रीडा करते वे पुरुषोत्तम पृथिवीको प्रमोद उपजावतेभए इनके सुखका वर्णन कहां तक करें। ऋतुराज कहिए वसंतऋतु उसमें सुगंध वायु बहे कोयल बोलें भ्रमर गुंजार करें समस्त बनस्पति ए.ले मदोन्मत्तहोय समस्तलोक हर्षकेभरेशृङ्गारक्रीडाकरें मुनिराज विषमबनमें विराजे प्रात्म स्वरूपका ध्यान करें। उसऋतुमें रामलक्ष्मण रणवास सहित और समस्त लोकोसहित रमणीक वनमें तथा उपवन में नानाप्रकार रंगक्रीडा रागक्रीडा जलक्रीडा बनक्रीडा करतेभए और ग्रीष्मऋतुमें नदीसूकें दावानल समान ज्वालावरसे महामुनि गिरिक शिखर सूर्यके सन्मुख कायोत्सर्ग धर लिष्ठेउसऋतुमें राम लक्ष्मण धारामंडप महिलमें। अथवा महारमणीक बनमें जहां अनेक जलयंत्र चन्दन कर श्रादि शीतल सुगंध मामिग्री वहां सुख । से विराजे हैं चमर दुरे हैं ताड़ के बीजना फिरे हैं निर्मल स्फटिककी शिलापर तिष्ठे हैं अगुरु चन्दन कर चर्चे जलकर तर ऐसे कमल दल तथा पुष्पों के सांथरे पर तिष्ठे, मनोहर निर्मल शीतल जल जिसमें लवंग इलायची कपूर अनेक सुगंध द्रव्य उनकर महा सुगंध उसका पान करते लतावोंके मंडपों में विराजते नाताप्रकार की सुन्दर कथा करते सारंग आदि अनेक राग सुनते सुन्दर स्त्रियों सहित उष्ण ऋतु को बलात्कार शीतकाल सम करते सुखसे पूर्ण करते भए, और वर्षाऋतु में योगीश्वर तरु तले तिष्ठते । For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 1024 1025 1026 1027 1028 1029 1030 1031 1032 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068 1069 1070 1071 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087