Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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न की कथा में अनुरागिणी महापतित्रता पवित्र तिन सहित बनउपवनगिरि नदियोंकेतट तथा निजभवनके ।
उपवन वहां नाना विधि क्राडा करते देवों कीन्याई रमों हेवत्स हो ऐसे मनोहर सुखोंको तजकर जिन दीक्षाधर कैसे विषमवन और गिरिकेशिखर कैसेरहोगे मैं स्नेहकाभरा और तिहारी माता तुम्हारेशोक कर तप्तायमान तिनकोतजकर जानातुमको योज्ञनहींकैयक दिनपृथिवीका राज्यकरों तववेकुमार स्नेही वासना से रहित भयाहै चित्त जिनका संमारसे भयभीत इन्दियों के सखसे पराङ्मुख महा उदार महाशूरवीर कुमार श्रेष्ठ अात्मतत्व में लगा है चित्त जिनका क्षण एक विचार कर कहते भएं हे पिता इस संसार में हमारे माता पिता अनंत भए यह स्नेह का बंधन नरक को कारण है यह घर रूप पिंजरा पापारंभ का और दुःखों को बढ़ावनहारा है उसमें मूर्ख रति माने हैं ज्ञानी न मानें अब कभी देह संबंधी तथा मन संबंधी दुःख हम कोन होय निश्चय से ऐसा ही उपाय करेंगे जो प्रोत्मकल्याण न करें सो आत्मघाती हैं कदाचित् घर न, तजे और मनमें ऐसा जाने में निर्दोष हूं मुझे पाप नहीं तो वह मलिन है पापी है जैसे सुफेद वस्त्र अंग के संयोग से मलिन होय तैसे घरके संयोग से गृहस्थी मलिन होय है, जे गृहस्थाश्रम में निवास करे हैं तिनके निरन्तर हिंसा प्रारंभकर पाप उपजे है इसलिये सत्पुरुषोंने गृहस्थाश्रम तजे और तुम हम सों. कही कैयक दिन राज्य भोगो सो तुम ज्ञानवान होयकर हमको अंधकूप में खरो हो जैसे तृषाकर अातुर मृग जल पीवें और उसे पारधी मारे तैसे भोगोंकर अतप्त जो पुरुष उसे मृत्य मारे है. जगत के जीव विषय की अभिलाषा कर सदा आर्त ध्यानरूप पराधीन हैं जे काम सेवे हैं वे अज्ञानी विषहरणहारीजड़ी चिना प्राशो विष सर्प से क्रीडा करे हैं सो कैसे जीवे यहाणी मीन समान गृहरूप तालाब में वसते विषयरूप
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