Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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कारिणी न होय और यह सबही रामके दर्शन की अभिलोपिनी राम को देखती देखती तृप्त न भई पद्म पराग जैसे भ्रमर कमल के मकरन्द से तृप्त न होय और कैयक लक्षमणकी अोर देख कहती भइ ये नरोत्तम
नारायण लक्ष्मीवान अपने प्रतापकर वशकरी है पृथ्वी जिन्होंने चक्रके धारक उत्तमराज्य लक्ष्मीके स्वामी वैरियोंकी स्त्रियोंको विधवा करणहारे रामके श्राज्ञाकारी हैं इस भांति दोनों भाई लोक कर प्रशंसा योग्य अपने मन्दिर में प्रवेश करते भए जैसे देवेन्द्र देवलोक में प्रवेश करें । यह श्रीराम का चारित्र। जो निरन्तर धारण करे सो अविनाशी लक्ष्मी को पावे ॥ इति एकसौ सातवां पर्व सम्पूर्णम् ॥ ___अथानन्तर राजा श्रेणिक गौतमस्वामी के मुख श्रीगम का चरित्र सुन मन में विचारता भयो । कि सीता ने लव अंकुश पुत्रों से मोह तजा सो वह सुकुमार मृगनेत्र निरन्तर सुख के भोक्ता कैसे माता। वियोग सहसके ऐसे पराक्रम के धारक उदारचित्त तिन को भी इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग होय है तो
औरों की क्या बात यह विचार कर गणधर देव से पूछा, हे प्रभो मैं तुम्हारे प्रसादकर राम लक्ष्मणका चरित्र सुनो अब वाकी लव अंकुश का सुना चाहूं हूं तब इन्द्रभूत कहिये गौतमस्वामी कहतेभए हे राजन् । कोकन्दी नाम नगरी उसमें राजारतिवर्द्धन राणी सुदर्शना उसके पुत्र दोय एक प्रियंकर दूजा हितंकर और मन्त्री सर्वगुप्त राज्यलक्ष्मी का धुरंधर सो स्वामीद्रोही राजाके मारिबे का उपाय चिन्तवे और सर्वगुप्त । की स्त्री विजियावली सो पापिनी राजा से भोग किया चाहे और गजा शीलवान परदारा पराङमुख इसकी माया में न आया, तब इसने राजा से कही मन्त्री तुम को मारा चाहे है सो राजाने इसकी बात न मानी तब यह पतिको भरमावती भई कि राजा तुझे मार मुझे लिया चाहे है तब मंत्री दुष्टने सब सामंत
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