Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
पुराण
करणहार प्रियंकर हितंकर भये मुनि होय चैवयक गये वहांसे चयकर लवगणांकुश भये महाभव्य तद्भव "६६६" मोक्षगामी और राजा रतिवर्धन की राणी सुदर्शना प्रियंकर हितंकर की माता पुत्रों में जिसका अत्यन्त अनराग था सो भरतार यार पुत्रोंके वियोग से अत्यन्त चार्तिरूप होय नानायोनियों में भ्रमणकर किसी एक जन्म विषे पुण्य उपार्ज यह सिद्धार्थ भया धर्म में अनुरागी सर्व विद्यामें निपुण सो पूर्व भव के स्नेहसे लवकुशको पढाए ऐसेनिपुण किए जो देवों करभी न जीते जांय यह कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिक से कही और आज्ञाकारी हे नृप कि यह संसार असार है और इस जीव के कौन २ माता पिता न भए जगत के सबही संबंध झूठे हैं एक धर्म ही का सम्बन्ध सत्य है इस लिए विवेकियों को धर्म ही का यत्न करना जिस कर संसार के दुःखों से छूटे समस्त कर्म महानिंद्य दुःखकी वृद्धि के कारण तिनको तज कर जैन का भाषा तपकर अनेक सूर्य की कांति को जीत साधु शिवपुर कहिये मुक्ति गए । एकसौट० अथानन्तर सीतापति और पुत्रों को तजकर कहां २ तप करती भई । सो सुनों कैसी है सीता लोक में प्रसिद्ध है यश जिसका जिससमय सीता भई वह श्रीमुनि सुव्रतनाथजी का समय था वे बीसमें भगवान महाशोभायमान भवभूमके निवारण हारे जैसा अरहनाथ और मल्लिनाथका समय तैसामुनि सुव्रतनाथ का समय उस में श्री सकल भूषण केवली केवल ज्ञान कर लोक लोक के ज्ञाता विहार करें हैं अनेक tayahीए सकल अयोध्या के लोक जिन धर्म में निपुण विधि पूर्वक गृहस्थ का धर्म राधे सकल प्रजा भगवान सकलभूषण के वचन में श्रद्धावान जैसे चक्रवर्ती की आज्ञा को पालें | तैसे भगवान् धर्म चक्री तिनकी आज्ञा भव्य जीवपालें राम का राज्य महाधर्म के उद्योतरूप जिस समय
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