Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
_ | और जे मिथ्या दृष्टि तप करे हैं गाम विषे एक राग्नि बसे हैं नगर विषेपांच रात्री और सदाऊवाह राखे हैं। पुराण | मास मासोपवास करे हैं और वन विषे विचरे हैं मौनी हैं निपरिग्रही हैं तथापि दयावान नहीं दुष्ट है ॥६६६ हृदय जिनका सम्यक्त वीज विना धर्मरूप वृक्ष को न उगाय सकें अनेक कष्ट करें तो भी शिवालय कहिये
मुक्ति उसे न लहें जे धर्म की बुद्धिकर पर्वत से पढ़ें अग्नि में जरें जल में ड्वें धरती में गडे वे कुमरण कर कुगति को जावे हैं जे पापकर्मो कामना परायण भारत रौद्र ध्यानी विपरीत उपाय करें वे नरक निंगाद लहैं मिथ्या दृष्टि जो कदाचित दान दे तप करे सो पुण्य के उदय कर मनुष्य और देव गतिके सुख भोगे हैं परन्तु श्रेष्ठदेव श्रेष्ठ मनुष्य न होय सम्यकदृष्टियोंके फलके असंख्यातवें भाग भी फल नहीं सम्यकदृष्टि चौथे गुणष्ठाणे अव्रती है तौभी नियम विषहै । प्रेम जिनका सो सम्यकदर्शन के प्रसादसे देवलोक विष उत्तम देव होवें और मिथ्या दृष्टि कार्लंगी महातप भी करें तो देवीके किंकर हीनदेव होंय फिर संसार भ्रमण करें और सम्यकद्दष्टि भव धेरै लो उत्तम मनुष्य होय तिनमें देवन के
भव सात मनुष्यों के भव आठ इस भांति पंद्रह भवमें पंचमगति पावें बीतराग सर्वज्ञ देवने मोक्षका । मार्ग प्रगट दिखायाहै परन्तु यह विषयी जीव अंगीकार न करे हैं आशारूपी फांसीसे बंधे मोहके वश पड़े तृष्णाके भरे पाप रूप जंजीन्से जकडे कुगति रूप बन्दीग्रह में ५ हैं स्पर्श और रसना आदि इंद्रियों के लोलुपी दुःखही को मुख मात्रै हैं यह जगत के जीय एक जिनधर्म के शरमा विना क्लेश भोगे हैं इंद्रियों के मुख चाहें हैं सौ मिले नहीं और मृत्युसे डरे सो मृत्यु छाडे नहीं विफल कामना। और विफल भयके बशभए जीव केवल तापही को प्राप्त होयह तापके हरिवे का उपाय और नहीं।
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