Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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क रन वन्नकावरीनामनाजोगताह अपर ऊपरला नीचे, और यह शरीर पुराण
1 दुर्गधिहै यंत्र समान बलाया चलेहे विनाशिक है मोह कर्म के योग से जीवका काया से स्नेह जलके। ७६७८॥
बवदा समान मनुष्य भनके उपजे सुख असार जान बड़े कुलके उपजे पुरुष विरक्त होय जिनराज का भाषा मार्ग अंगीकार करे हैं उत्साह रूप वपतर परिर निश्चय रूप तुरंग के असवार ध्यान रूप खडग के धारक धीर कर्म रूप शत्र को विनाश निर्वाणरूपनगर लेयहें. यह शरीरभिन्न औरमें भिन्न ऐसा चितवन कर शरीरका स्नेह तजहेमनुष्यो धर्मको धर्म समानौर नहीं और धर्मोसे मुनिका धर्म श्रेष्टहै जिन महामुनियोंकेसुख दुःखदोनोंतुल्य अपना और पराया तुल्य जेराग द्वंप रहित महापुरुष हैं वे परम उत्कृष्ट । शुक्ल ध्यान रूप अग्नि से क. रूप बनी दुःख रूप दुष्टों से भरी भस्म करें हैं मुनि के बचन राजा। श्रीचन्द्र सुन बोध को प्राप्त भया विषयानुभव सुखसे वैराग्य होय अपने ध्वजकांति नामा पुत्रको राज्य देय समाधिगुप्ति नामा मुनि के समीप मुनि भया महा विरक्त है मन जिस का सम्यक की भावना से तीनों योग जे मन बचन काय तिनकी शद्धता धरता संता पांच सुमति तीनों गप्ति से मंडित राग द्वेष से परांमुख रत्नत्रय रूप आभूषणों का धारक उत्तम क्षमा प्रादि दशलक्षणं धर्म कर मंडित जिनशासन का अनुरागी समस्त अंग पूर्वाङ्गका पाठक समाधान रूप पंच महाव्रत का धारक जीवों का दयालु सप्त भय रहित परमधीर्य का धारक बाईस परीषह का सहनहारा, वेला तेला पक्ष मामादिक अनेक उपवास का करणहारा शुद्ध आहार का लेनहारा ध्यानाध्ययन में तत्पर निर्ममत्व अतीन्द्रिय भोगों की बांछा का त्यागो निदान बन्धन रहित महाशांत जिनशासन में है वात्सल्य जिसका, यति के प्राचार
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