Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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॥६७७
। कहिये षद्रव्य सप्त तत्व नव पादार्थ पंचास्तिकाय का निर्णयकैसे हैं मुनिराजवक्ताओंमें श्रेष्ठ, और श्राक्षे । परा, पनी कहिए जिन मार्ग उद्योतनी और पनी कहिए मिथ्यात्व खंडनी और संवेगजनी कहिए धर्मानु
रागिणी और निवादिनी कहिए वैराग्यकारिणी यह चार प्रकार कथा कहते भए, इस संसार असार में कर्म के योग से भ्रमतो जो यह प्राणी सो महा कष्ट से मोक्ष मार्ग को प्राप्त होय है संसार का पाठ विनाशीक है जैसा संध्या का वर्ण और जल का बुबदा तथा जल के झाग और लहर और बिजरी का चमत्कार इंद्र धनुष क्षणभंगुर हैं प्रसार है ऐसा जगत् का चरित्र क्षणभंगुर जानना इस में सोर नहीं नरक तिर्यंचगति तो दुःख रूप ही है और देव मनुष्य गति में यह प्राणी सुख जाने है सो सुख नहीं दुःख ही है जिस से तृप्त नहीं सोही दुःख जो महेन्द्र स्वर्ग के भोगों से तृप्त नहीं भया सो मनुष्य भव के तुच्छ भव से कैसे तृप्त होय यह मनुष्य भव भोग योग्य नहीं वैराग्य योग्य है काहू एक प्रकार से दुर्लभ मनुष्य देह पाया जैसे दरिद्रीनिधानपावेसोविषय रस का लोभी होय वृथा खोया मोहकोप्राप्त भया जैसे सूके इन्धन से अग्निको कहां तृप्ति और नदियों के जल से समुद्र को कहां तृप्ति तैसे विषय सुख से जीवन को तृप्ति न होय, चतुर भी विषय रूप मद कर मोहित भया मंदता को प्राप्त होय है अज्ञान रूप तिमिर से मंद भया है मन जिस का सो जल में डूबता खेदखिन्न होय त्यों खेदखिन्न है परन्तु अविवेकी तो विषय ही को भला जाने है सूर्य तो दिनको तोप उपजावे और काम रात्रि दिन प्राताप उपजाये सूर्य के प्राताप निवारवे के अनेक उपाय हैं और कामके निवारवे का उपाय एकवि कहींहै जन्म जरा मरणका दुःख संसारमें भंयकर है जिसका चितवन किए कष्ट उपजे यह कर्मजनित जगतको बाट
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