Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पा असार विष अनादि कालका मिथ्या मार्ग कर भूमता हुवा दुःखितभया अब मेरेनुनिव्रत परिवेकी इच्छा। MEEE है,तब श्रीराम कहतेभए जिनदीचा अति दुर्धरहै तू जगतका स्नेह तज कसे धारेंगा महा तीब शीत ।
उष्ण आदि बाइस पगषह कैसे सहेगा और दुर्जन जनोंके दुष्टबचन कंटक तुल्य कैसे सहेगा और अब । तक तैंने कभी भी दुःख सहे नहीं कमलका किरण समान शरीर तेग सो कैसे विषमभूमि के दुख । सहेगा गहन बनमें कैसे रात्रि पूरी करेगा और प्रकट दृष्टि पडे हैं शरीर के हाड और नसा जाल वहां ऐसे उग्र तप कैसे करेगा और पत्र मास उपवास का दोष टाले पर घर नीरस भोजन कैसे कग्गा तू महा तेजस्वी शत्रुओं की सेनाके शब्द न सहि सके सोकैसे नीच लोकोंके किये उपसर्ग सहेगा तव कृतांतबक बोला हे देव जब मैं तुम्हारे स्नेहरूप अमृत के ही तजबेकी समर्थ भया तो मुझे कहीं। विषम है जस्तक मृत्युरूप बज्रकर यह देह रूप स्तंभ न विगे उस पहिले में महा दुःख रूप यह भव । बन अंधकार मई उससे निकसा चाहूंहूं जो बलते घरमे से निकसे उसे दयावान नरोके यह संसार असार महानिन्ध है इसे तनकर आत्म हितकरूं अवश्य इष्टका वियोग होयगा इस शरीर के योग कर सब दुःखहै सो हमारे शरीर फिर उदय न आवे इस उप.य विबुद्धि उद्यमी भई है ये बचन कृतांत बक्रके सुन श्रीराम के प्रांसू पाए और नीठे नीठे मोहका दाब कहते भए मेरसी विभूतिकोतज तूतष को सन्मुख भया है सो धन्य है जो कदाचित् इस जन्म मोक्ष न होय और देव होयतो संकटमें प्राय मुझे संबोधियो हे मित्र जो तू मेरा उपकार जाने है तो देवगतिमें विस्मरण मत करियो तब कृतांतबक्रने नमस्कारकरकही हे देव जो आप आज्ञाकरोगे सोही होयगा ऐसाकह सर्व आभूषण उतारे और सकलभूषण
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