Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
॥६६३५
| हे तिनके देवांगना नहीं वे देवर्षि हैं भगवान् के तप कल्यानक मेंही पावें ऊर्घलोक में देवही हैं अथवा पुराण, पंच स्थावरही हैं। हे श्रेणिक यह तीनलोक का व्याख्यान जो केवली ने कहा उसको संक्षेपरूप जानना
तीन लोक के शिखर सिद्धलोक है उस समान देदीप्यमान और क्षेत्र नहीं जहां कर्म बंधनसे रहित अनन्त सिद्ध विराज हैं मानो वह मोक्ष स्थानक तीन भवन का उज्वल छत्रही है वह मोक्ष स्थानक अष्टमी धरा है अष्ट पृथिवी के नाम नारक १ भवनबासी २ मानुष ३ ज्योतिषी ४ स्वर्गवासी ५ ग्रीव ६और अनुत्तर विमान मोचये पाठपृथिवी हैं सोशुद्धोपयोगके प्रसादसे जे सिद्धभयेहें तिनकी महिमा कही न जाय तिनको मरण नहीं फिर जन्म नहीं महा सुखरूप हैं, अनन्त शक्ति के घारक समस्त दुःख रहित महानिश्चल सर्वके ज्ञाता द्रष्टा हैं यह कथन सुन श्रीरामचन्द्र सकलभूषण केवली से पूछते भये हे प्रभो अष्ट कर्म रहित अष्टगुणादि अनन्त गुण सहित सिद्ध परमेष्ठी संसारके भावन से रहित हैं सो दुःख तो उनको किसी प्रकारका नहीं और सुख कैसा है तब केवली दिव्य ध्वनि कर कहते भये इस तीन लोकमें सुख नहीं दुखहीहै अज्ञानसे वृथा सुख समान रहे हैं संसारका इन्द्रिय जनित सुख बाधा संयुक्त क्षणभंगुर है अष्टकर्म कर बंधे सदा पराधीन ये जगत्के तुछमात्र भी सुख नहीं जैसे स्वर्णका पिंड लोहकर संयुक्त होय तव स्वर्ण की कांति दव जाय है तैसे जावकी शक्ति कर्मोकर दवरही है सो सुख रूप नहीं दुखही भोगवे हैं यह प्राणीजन्म। जरा मरण रोग शोक जेअनन्त उपाधि तिनकर महापीडित है तनुका और मनका दुख मनुष्य तिर्यच नारकीयों को है और देवोंको दुख मनहीका है सो मनका महा दुख है उस कर पीड़ित हैं इस संसार । में सुख काहे का ये इन्द्री जनित विषय के सुख इन्द्र धरणीद्र चक्रवर्तियोंको शहतकी लपेटी खडग की।
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