Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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पद्म
भये, और वे इन्द्री ते इन्द्री चौइन्द्री ये दोय दोय लाख योनि उसके छ लाख योनि भेद विकलत्रयके भए और पुराण, पंचेंद्री तिर्यंचके भेद चार लाख योनियें सब तिर्यंच योनिके बासठ लाख भेद भये और देवयोनि के भेद
चार लाख नरकयोनियोंके चार लाख और मनुष्य योनिके चौदह लाख ये सब चौरासी लाख योनि महा दुखरूप हैं इनसे रहित सिद्धपदही अविनाशी सुखरूपहै संसारी जीव सवही देहधारी हैं और सिद्ध पर मेष्टी देहरहित निराकार हैं शरीरके भेद पांच औदरिकवक्रियक आहारिक तैजसकार्मण तिनमें तैजस कार्मण तो अनादिकालसे सब जीवनको लगरहे हैं तिनका अंतकर महामुनि सिद्ध पद पावे हैं प्रौदरिक से असंख्यात गुणा अधिकवर्गणावैक्रियकके हैं और वैक्रियकसे असंख्यातगुणीश्राहारकहऔराहारक से अनंतगुणी तैजसके हैं और तैजससे अनंतगुणी कार्मणके हैं जिस समय संसारी जीव देहको तजकर दूसरी गतिको जाय है जितनी देरी एक गातसे दूसरी गतिमें जाते हुये जीवको लगे है ।उस अवस्था में जीवको अनाहारी कहिये । और जितना वक्त एक गतिसे दूसरी गतिमें जानेमें लगे सो वह कर्म एक समय तग दो समय अधिक से अधिक तीन समय लगे हैं सो उस समय जीव के तेजस भोर कार्मण ये दो ही शरीरं पाइयें है वगैर शरीरके यह नीव सिवाय सिद्ध अवस्थाके और सी अवस्था में किसी वक भी नहीं होता इस जीव के हर वक्त और हरगति में जन्म ते मरते गर्भ में साथ ही रहते हैं जिस वक्त यह जीव घातया अघातिया दोनों प्रकार के कर्म तय करके सिद्ध अवस्थाको जाता है उस समय तैजस और कार्माणका क्षय होताहे और जीवोंके शरीरोंके परमाणुभोंकी सूक्ष्मता। | इस प्रकारहै कि औदरिक से वैक्रियक सूचम और वैकियक से आहारक सूचम आहारक से तेजस ।
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